अधिनियम का एक प्रावधान असंवैधानिक करार
विशेषज्ञ का दावा अधिनियम कभी लागू नहीं हो सकेगा
मंत्री, विधायक या बड़े अधिकारी के लोकपाल के दायरे में नहीं
लोकपाल बिल को लेकर वरिष्ठ अधिवक्ता नदीमउद्दीन से खास बातचीत
(रुद्रपुर से जहांगीर राजू)
भ्रष्टाचार नियंत्रण के लिये उत्तराखंड लोकायुक्त अधिनियम विधानसभा से पारित कराने का बहुत शोर है यहां तक कि अन्ना टीम भी इसका स्वागत करते नहीं थक रही है लेकिन अगर इसे ध्यान से देखे तो न सिर्फ इसके कुछ प्रावधान अत्यन्त कमजोर तो हैं ही साथ ही एक प्रावधान तो असंवैधानिक भी है। वर्तमान परिस्थितियां यह बता रही है कि यह अधिनियम कभी भी लागू नहीं हो सकेगा।
उत्तराखंड लोकायुक्त अधिनियम 2011 की धारा 1(2) के अनुसार अधिनियम राज्यपाल की अनुमति के 180 दिन के अन्दर लागू हो जायेगा। अगर इस बीच शीतकालीन सत्र में केन्द्र लोकायुक्त के प्रावधानों को शामिल करके लोकपाल कानून पास करके लागू कर देता है वह प्रभावी होगा और यह अधिनियम कभी लागू नहीं हो पायेगा। कानून विशेषज्ञ तथा भ्रष्टाचार निवारण व सूचना अधिकार सहित 35 कानूनी पुस्तकों के लेखक नदीम उद्दीन एडवोकेट के अनुसार कमजोर प्रावधानों में धारा 4(8), धारा 5(ड़) (थ), धारा 7(4), 7(7), धारा 9 तथा 18 के प्रावधान शामिल हैं। यद्यपि मजबूत प्रावधानों में धारा 2(ड़), 4(7), 4(9), 5, 6, 8, 10, 11(6), 12,15, 24, 25, 26, 28, से 32 तथा धारा 34 के प्रावधान शामिल है।
धारा 4(8) के प्रावधान के कारण अब लोकायुक्त तथा मुख्य लोकायुक्त बनने के लिये हाईकोर्ट का जज रहने की बाध्यता नहीं है कोई भी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में 20 साल से प्रैक्टिस करने वाला अधिवक्ता भी लोकायुक्त तथा मुख्य लोकायुक्त हो सकता है। इस प्रकार सभी लोकायुक्त ऐसे व्यक्ति हो सकते है जो कभी न्यायाधीश न रहे हों।
धारा 5(ड़) के अन्तर्गत भ्रष्ट रीति से प्राप्त पट्टा, अनुज्ञा, अनुमति, संविदा करार निरस्त करने की संस्तुति करने की लोकायुक्त को शक्ति तो दी गयी है लेकिन लोक प्राधिकारी को उसकी संस्तुति एक माह के अन्दर कारण सहित निरस्त करने का भी अधिकार दिया गया है। इसके विरूद्ध लोकायुक्त को निर्देश के लिये हाईकोर्ट जाना होगा। इसी प्रकार धारा 5(थ) में भ्रष्टाचार कम करने के लिये संस्तुति करने का लोकायुक्त को अधिकार दिया गया है लेकिन इसे भी स्वीकार न करने पर कारण सहित अनुपालन रिपोर्ट भेजी जा सकती है। इसी प्रकार धारा 9 के अन्तर्गत भ्रष्टाचार के विषय को रोकने की संस्तुति करने की लोकायुक्त को शक्ति दी गयी है लेकिन इसे भी मानने को लोक प्राधिकारी (विभाग/संस्था) बाध्य नहीं है। वह इसे खारिज करके कारणों सहित 15 दिन में लोकायुक्त का सूचित कर सकता है जिसके विरूद्ध लोकायुक्त को हाईकोर्ट की शरण लेनी होगी।
धारा 7(4) अत्यन्त खतरनाक धारा है जिसके अन्तर्गत लोकायुक्त को अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी शिकायत को सुनवाई हेतु स्वीकार करने या न करने का विवेकाधिकार दे दिया गया है। इसके अनुसार लोकायुक्त शिकायतकर्ता को अन्य अनुतोष उपलब्ध होने के आधार पर अन्वेषण से इंकार कर सकता है। भ्रष्टाचार के प्रत्येक मामले में पुलिस में एफ.आई.आर. दर्ज कराने, न्यायालय में सीधे मुकदमा दर्ज कराने का अनुतोष उपलब्ध रहता है। ऐसी अवस्था में लोकायुक्त मनमाने तरीके से किसी भी शिकायत पर जांच से इंकार कर सकेगा।
श्री नदीम के अनुसार अभी तक लोकायुक्त को किसी भी मंत्री, विधायक या शासन के कितने बड़े स्तर के अधिकारी के विरूद्ध शिकायत पर जांच करने का अधिकार है लेकिन नये लोकायुक्त अधिनियम लागू होने पर यह सीधे संभव नहीं होगा। जहां धारा 18 के अनुसार मुख्यमंत्री, मंत्री तथा विधानसभा सदस्यों के विरूद्ध अन्वेषण या अभियोजन लोकायुक्त के अध्यक्ष सहित सभी सदस्यों की पीठ की अनुमति के बाद ही प्रारम्भ होगी। इसी प्रकार धारा 7(7) के अनुसार सरकार के सचिव एवं उससे ऊपर के प्रकरण में जांच या मुकदमा लोकायुक्त के दो सदस्य व अध्यक्ष की पीठ की अनुमति के बाद ही प्रारम्भ होगा।
इसके अतिरिक्त धारा 12 के अनुसार लोकायुक्त के अध्यक्ष या सदस्यों को उसके पद से किसी व्यक्ति की शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट की जांच के पश्चात ही हटाया जायेगा। धारा 12 से सुप्रीम कोर्ट को अतिरिक्त शक्तियां दी गयी है। ऐसी शक्तियां भारतीय संविधान अनुच्छेद 138 व 140 के अन्तर्गत संसद से पारित कानून के द्वारा ही दी जा सकती है। राज्य विधान सभा से पारित कानून द्वारा ऐसा करना असंवैधानिक है। इसलिये यह प्रावधान असंवैधानिक है।
किसी भी राज्य द्वारा पारित कानून को राज्यपाल द्वारा कानून पास करने के बाद केन्द्र को भेजे जाने का कोई प्रावधान संविधान में नहीं है। इसलिये ऐसा करना लोकायुक्त अधिनियम को लटकाने का भी एक तरीका माना जा सकता है।
येसा अधिनियम बनाने से क्या फायदा....जब इसका लाभ ही ना मिले....
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