Wednesday, November 24, 2010

Uttarakhand hills is the center of studies for Australian students

                                            (Kamal Jagati From Nainital)


Students of St. Francis Xavier College, Canberra in Australia are here on a project to analyze the condition of school’s and the level of education in the rural areas of the hills in Uttarakhand.
According to Sua, a lady teacher in the group, nine students along with two teacher’s including her have come to Nainital to visit the Government school at Pangot. Sua told that the students of her College have come here for a project on education and the students would learn about education standards and their community.


Sua further said that they are here for another twenty days as they will visit Pindari Glacier on the coming twenty-sixth of this month, they will return after a week and a half and then with the help of a local coordinator they will visit the nearby school in Pangoot. The Australian students are very excited to see the small students of the hill region and have planned to present them with Cushions to sit, and a Shed (shelter) as they have come to know that the school does not have chair’s to sit and roof to provide them shelter.
Steven, a class teacher told us that the students have raised a Fund for the project from a year and a half as the government did not provide them with any aid. He added that the group would move to Rishikesh and Haridwar for their further project work.
The students played a Basketball match with the local youths to release their exertion of traveling from Australia via Kuala-Lumpur and Delhi, the students are of class 11and 12. Joe, Andy Tim are some of the students who have visited the Lake city.

Tuesday, November 16, 2010

दस बरस बाद भी दराजों में बंद शहीदों के सपने

अंतिम गांव तक नहीं पहुंची विकास की किरणें

एक लाख जनसंख्या पर मात्र 4.46 अस्पताल

163082 जनसंख्या पर मात्र एक डिग्री कालेज
          (जहांगीर राजू रुद्रपुर से)

उत्तराखंड राज्य की स्थापना के दस साल बाद भी राज्य निर्माण को लेकर संघर्ष करने वाले लोगों व शहीदों के सपने आज भी दराजों में बंद पड़े हुए हैं। स्थिति यह है कि हर साल करोड़ों का बजट खर्च होने के बाद भी राज्य के अंतिम गांव में रहने वाले लोगों तक विकास नहीं पहुंच पाया है। शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी चीजों के लिए भी लोगों के लिए मुलभूत संसाधन विकसित नहीं हो सके हैं। स्थिति यह है कि आज राज्य की एक लाख जनसंख्या में मात्र 0.94 फीसदी डिग्री व प्रोफेशनल कालेज हैं। राज्य की चिकित्सा व्यवस्था भी दयनीय है, यहां एक लाख जनसंख्या में मात्र 4.6 फीसदी ही चिकित्सालय मौजूद हैं।
राज्य गठन के बाद के आंकडो़ं पर अगर नजर डाले तो नए राज्य में विकास प्रमुख नगरों व महानगरों तक ही सिमटकर रह गया है। जिसे देखकर लगता है कि नए राज्य के लिए शहादत देने वाले लोगों के सपने अब भी दराजों में ही बंद पड़े हुए हैं।
सांख्यकी सर्वे के मुताबिक राज्य में यदि संचार सुविधाओं को अगर देखा जाए तो यहां मात्र 4.३६ फीसदी लोगों तक ही टेलीफोन पहुंच पाए हैं। राज्य के बागेश्वर व रूद्रप्रयाग जिले में तो मात्र 0.9 व 1.9 फीसदी लोगों तक की संचार सेवा पहुंच पायी है। राज्य में पोस्टआफिस की स्थिति को अगर देखा जाए तो यहां 3१२0 जनसंख्या में मात्र एक पोस्ट आफिस मौजूद है। इस प्रकार अगर देखा जाए को एक पोस्ट आफिस क्षेत्रफल के हिसाब से 19 किलोमीटर के क्षेत्र को वर कर रहा है। राज्य की प्राथमिक शिक्षा को अगर देखा जाए तो यहां एक लाख की जनसंख्या में मात्र 168 स्कूल हैं। जबकि प्रति लाख जनसंख्या में पिथौरागढ़ में 3३५, पौडी में 3२५, टिहरी में 27६ व उत्तरकाशी में 260 विद्यालय हैं। माध्यमिक व उच्च माध्यमिक विलद्यालयों के आंकडों के मुताबिक यहां एक लाख जनसंख्या में मात्र 6२ विद्यालय हैं। राज्य में डिग्री व प्रोफेशन विद्यालयों की स्थिति बहुत नगण्य है। यहां एक लाख लोगों पर मात्र 0.9४ फीसदी विद्यालय हैं। इस प्रकार अगर देखा जाए तो 16३08२ जनसंख्या को एक महाविद्यालय केवल कर रहा है। राज्य में सडक़ों की स्थिति को अगर देखा जाए तो 6४ फीसदी गांव सडक़ों से जुड़ चुके हैं, लेकिन चंपावत जिले में यह अनुपात 38 व टिहरी जिले में 7६ प्रतिशत हैं। 
राज्य में चिकित्सा सेवा की स्थिति भी काफी दयनीय है। दुर्गम क्षेत्रों में यह लगातार बिगड़ती जा रही है। राज्य में एक लाख जनसंख्या पर मात्र 4.6 फीसदी प्राथमिक विद्यालय हैं। इस प्रकार देखा जाए तो पौड़ी में 0.13, चंपावत में 0.9, पिथौरागढ़ में 2.4 व उत्तरकाशी में प्रति एक लाख लोगों पर 2.6 फीसदी चिकित्सालय हैं। एक लाख जनसंख्या पर अस्पतालों में मात्र 8४ शय्याएं ही मौजूद हैं। चमोली, टिहरी यह आंकड़ा 5३ व 58 तक पहुंच जाता है। राज्य में चिकित्सकों की संख्या को अगर देखा जाए तो यह आंकड़ा बहुत की चौकाने वाला है। यहां एक लाख लोगों में मात्र 9.५ फीसदी चिकित्सक मौजूद हैं। प्रो. पांडे बताते हैं कि राज्य के सुदूवर्ती क्षेत्रों में रह रहे लोगों के लिए अबतक मुलभूत सुविधाएं मुहैया कराने का कार्य शुरू नहीं हो पाया है। जिन क्षेत्रों में विकास कार्य हो रहे हैं वह गुणवत्ता नहीं होने के कारण एक साल में भी व्यस्त हो जाते हैं। चंपावत पिथौरागढ़ मोटर मार्ग में हुए कार्य इसका उदाहरण हैं। 
उत्तराखंड राज्य के गठन के लिए शहादत देने वाले व संघर्ष करने वाले लोगों का सपना था कि राज्य बनने के बाद अंतिम गांव तक विकास पहुंचेगा। अपने राज्य में आम आदमी की मुश्किलेें कम होंगी। लेकिन राज्य गठन के दस साल बाद के आंकड़े बताते हैं कि यहां अबतक सुदूरवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए मुलभूत संसाधन विकसित नहीं हो पाए हैं

Sunday, November 14, 2010

अयोध्या फ़ैसला और मीडिया : जब नकाब उतर गई



भूपेन सिंह
शासक वर्ग ऐसे बुद्धिजीवियों और संस्कृति नियंताओं को काम में लगाता है जो प्रभुत्वशाली संस्थाओं और जीवनशैलियों का महिमंडन करने वाले विचारों की उत्पत्ति करते हैं। ये बुद्धिजीवी साहित्य, प्रेस, फिल्म और टेलीविजन जैसे माध्यमों में शासक वर्गीय विचारों का प्रोपेगैंडा करते हैं।-मीनाक्षी गिगि दुरहम और डगलस एम केलनर अयोध्या मामले में क्या हाईकोर्ट के फैसले ने भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को बचा लिया है? आप मानें या मानें बुद्धिजीवियों का बड़ा हिस्सा कोर्ट के फैसले को जायज ठहराने में जुटा है। जन संचार माध्यम इस फैसले की तरह-तरह से व्याख्या कर रहे हैं। जिनमें से ज़्यादातर का रुख या तो भाजपाई (संघी) है या फिर कांग्रेसी। संघी मानसिकता वाले बुद्धिजीवी बहुत ही रणनीतिक तरीके से फैसले को सही ठहरा रहे हैं और इसे हिंदू आस्था की जीत बता रहे हैं। जबकि कांग्रेसी इस फैसले को बहुलतावाद के पक्ष में और शांति की ओर ले जाने वाला बता रहे हैं। ऐसे में सवाल ये है कि क्यों दो धुर विरोधी राजनीतिक दल एक ही फैसले को अपने-अपने तरीके से सही बता रहे हैं। इस सिलसिले में अगर अयोध्या फैसले के अगले दिन प्रकाशित तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों का विश्लेषण किया जाए तो साफ हो जाता है कि उनके शब्दों के छे किस तरह की पक्षधरता छुपी है।
तीस सितंबर को इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच की तरफ से अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाये जाने के बाद एक अक्टूबर को कमोबेश दिल्ली के हर अखबार ने इसे पहले पन्ने पर बैनर हेडलाइन (पहली सुर्ख़ी ) बनाकर छापा। इसके अलावा भी भीतरी पृष्ठों पर पूरे मामले को काफी जगह दी गई। ज़्यादातर अखबारों ने फैसले पर संपादकीय भी लिखे। लेकिन सभी खबरों और विश्लषणों को पढऩे के बाद लगता है कि हमारा मीडिया संघी शब्दों, संकेतों और विचारों को अपनाते हुए किस तरह पूर्वाग्रहों से ग्रसित है और छद्म राष्ट्रवाद में नहाया हुआ दिखा।
इस सिलसिले में सबसे खतरनाक भूमिका रही देश में सबसे यादा प्रसार संख्या वाले अखबार दैनिक जागरण की। एक अक्टूबर के अखबार में पहले पन्ने पर बैनर हैडलाइन में उसने लिखा- ‘विराजमान रहेंगे राम लला, इसके नीचे सब हेडिंग में ये भी लिखा किविवादित ढांचा इस्लामी मूल्यों के खिलाफ, इसलिए मस्जिद नहीं माना। अब अगर इस खबर के इंट्रो पर गौर करें तो उसमें लिखा है किरामलला जहां हैं वहीं विराजमान रहेंगे, ये उनका जन्मस्थान है। खबर को इस तरह से लिखा गया है कि जिससे सीधे-सीधे एक समुदाय विशेष का पक्ष साफ दिखाई दे। जिसमें पत्रकारिता की शब्दावली में न्यूनतम वस्तुनिष्ठता का भी ध्यान नहीं रखा गया है। अखबार ने पहले ही पृष्ठ पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की आक्रामक मुखमुद्रा वाली फोटो के साथ खबर छापी है। जिसमें उन्होंने भव्य राम मंदिर के निर्माण का आह्वान किया।
हैरानी की बात ये है कि जागरण के उलट कई अखबारों ने मोहन भागवत को शांति की अपील करते हुए भी दिखाया। इस अखबार के भीतरी पन्नों में भी धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाली कई इसी तरह की अनाप-शनाप चीजें भरी पड़ी हैं। संपादकीय पन्ने में तीन लेख हैं और तीनों इस मामले पर हिंदू वरचस्व का पक्ष लेते हैं। आस्था परअदालत की मुहर नाम से भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद का एक प्रमुख लेख है। उसके नीचे संघ समर्थक सुभाष कश्यप का तर्क हैमंदिर की मान्यता की पुष्टि, बगल में कांग्रेसी राशिद अलवी का लेख हैमस्जिद की जिद छोड़ें संपादकीय में फैसले को कबूल कर शांति की खोखली अपील कर मीडिया-धर्म निभाया गया। कुल मिलाकर इस अखबार ने बहुसंख्यक हिंदुओं का पक्ष लेने में कोई कोताही नहीं बरती। दूसरे या तीसरे पक्ष के विचारों के लिए इसके पास कोई जगह नहीं।
नई दुनिया लाल रंग की बैनर हेडलाइन में लिखता है: ‘वहीं रहेंगे राम लला पहले ही पेज पर अखबार के समूह संपादक आलोक मेहता नेआस्था केलिए न्याय नाम से एक विशेष संपादकीय लिखा। जिसमें उन्होंने आस्था को न्याय का पैमाना बनाए जाने पर कोर्ट की तारीफ के पुल बांधे। आम तौर पर कांग्रेसी माने जाने वाले यह संपादक यहां पूरी तरह भगवा नेकर में नजर आते हैं।
जनसत्ता ने अपेक्षाकृत संयम बरतते हुए पहले पेज की पहली हेडलाइन में लिखा है: ‘तीन हिस्सों में बंटे विवादित भूमि, लेकिन अखबार ने इस मुद्दे पर उस दिन संपादकीय लिखने की जरूरत नहीं महसूस की। अमर उजाला ने दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर से होड़ लेते हुए मुख पृष्ठ में बैनर हैडलाइन पर लिखा: ‘राम लला विराजमान रहेंगे इस अखबार नेफैसला माने, भावना समझें नाम से संपादकीय लिखा। बाकी संपादकीय पृष्ठ परअमन की अयोध्या नाम से मुख्य धारा के कुछ जाने-माने लोगों के विचार दिए, जिसमें कहा गया किअदालत के फैसले से सांप्रदायिक सद्भाव की परंपरा मजबूत हुई इस अखबार में एक पृष्ठ में फैसले के बारे में तीनों जजों के निर्णयों पर विस्तार से चर्चा की गई है। साथ ही उनकी सामाजिक-मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर भी कुछ बातें की गई हैं। जाहिर है कि सभी बातें तारीफ मे कही गई हैं। लेकिन इस तारीफ में उनकी असलियत को आसानी से समझा जा सकता है।
दैनिक भास्कर ने लिखाभगवान को मिली भूमि बॉटम में अखबार के समूह संपादक श्रवण गर्ग ने केचुलियां और नकाबें उतरने में वक्त लगेगा नाम से टिप्पणी लिखी है। जिसमें अदालत के फैसले का सममान कर शांति बनाये रखने की अपील की गई है। बाकी पन्नों में ये अखबार, जनता के अभिभावक जैसे रुख में दिखाई देता है। पहले ही पेज में इस पूरे घटनाक्रम के संदर्भ मेंदेने का सुख- दीजिए सहनशीलता खुद को नाम से एक नीति कथा छापी गई।
(समयान्तर के नवम्बर अंक में प्रकाशित)

समुदाय पर्यटन की मिसाल बना कार्बेट का गांव

कालाढूंगी स्थित छोटी हल्द्वानी में घूमने आने वाले सैलानियों को कुमाऊंनी व्यंजन परोसे जा रहे है 

चंदन बंगारी रामनगर

कालाढूंगी स्थित कार्बेट के गांव छोटी हल्द्वानी के ग्रामीण समुदाय पर्यटन की नई मिसाल पेश कर रहे है। गांव घूमने आने वाले देशी-विदेशी सैलानियों को ग्रामीण कार्बेट से जुड़ी धरोहरों के साथ ही कुमाऊंनी संस्कृति व खानपान से भी रूबरू करा रहे है। सैलानियों की बढ़ती आवाजाही से ग्रामीणों को भी अच्छा मुनाफा मिल रहा है। 
नैनीताल जिले के कालाढंूगी में बसे छोटी हल्द्वानी को 1915 में शिकारी से संरक्षणवादी जिम कॉर्बेट ने बसाया था। जिम कॉर्बेट एक महान षिकारी एवं संरक्षणवादी होने के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। उनका सामाजिक कार्याें के प्रति रूझान उनके द्वारा छोटी हल्द्वानी को विकसित करने के लिए किये गये कार्यों से लगाया जा सकता है। कृषि कार्य को बढ़ावा देने के लिए जिम कॉर्बेट द्वारा विदेषों से इस गाँव में विभिन्न फसलों की प्रजातियां लाई गयी, इनमें प्रमुख रूप से केले एवं मक्का की प्रजातियांे के अलावा कॉफी की फसलें प्रमुख थी। उन्होने अपने सहयोगी मोती सिंह के लिए घर का निर्माण किया, गा्रमवासियों की फसल की सुरक्षा हेतु गाँव के चारो ओर दीवार बनवाई तथा जंगली जानवारों से सुरक्षा हेतु एक भरूवा बन्दूक गाँव वालों को दी। इसके अलावा गाँव का राजस्व भी जिम कॉर्बेट स्वयं ही भरते थे।
सन् 1947 में आजादी के बाद जिम कॉर्बेट व उनकी बहन मैगी भारत छोड़कर केन्या में बस गये। भारत छोड़ने के बाद भी उनका मन छोटी हल्द्वानी और भारत के लोगों के साथ ही रहा और ग्राम छोटी हल्द्वानी का राजस्व रू 910 प्रति वर्ष उन्होने वहीं से भेजना जारी रखा। आजादी के बाद कार्बेट के बंगले व धरोहरों को म्यूजियम का रूप देकर सैलानियों के देखने के लिए खोला गया। गांव में ठहरने की व्यवस्था न होने से कई सैलानी ऐतिहासिक गाँव में रहने की तमन्ना रखने के बावजूद मायूस होकर वापस लौट जाते थे। जिसके बाद कार्बेट ग्राम विकास समिति ने ग्रामीणों के साथ तालमेल कर एक साल पहले होम स्टे का कार्यक्रम गांव में ही शुरू किया। होम स्टे कार्यक्रम के तहत देश-विदेश से आने वाले सैलानियों को स्थानीय परिवारों के घरों में ही रात्रि विश्राम की सुविधा कराई जाती है। पर्यटकों की बढ़ती आमद को देखते हुए ग्रामीणों ने इलाके में मौजूद घास व बांस के प्रयोग से चार कॉटेज भी बनवाए है। गाँव में ठहरने वाले सैलानियों को रात में मनोरंजन के लिए कुमाऊंनी संध्या में लोकगीतों, झोड़ा, चांचरी आदि का आयोजन होता है।
वहीं उन्हें कार्बेट संग्रहालय सहित ग्रामीण परिवेश से भी रूबरू कराया जाता है। गांव के बीच बने अरण्य नामक सामुदायिक भोजनालय में होम स्टे के तहत सैलानियों को कुमाऊंनी व्यंजन भटट की चुड़कानी, डूबके, मडुवे की रोटी, बड़ी की सब्जी, गहत, मास की दाल, मक्के व बेडुवे की रोटी, चावल, पुआ परोसा जाता है। सैलानियों से प्राप्त होने वाले शुल्क का 15 प्रतिशत संस्था व बाकी धनराशि ग्रामीणों को दी जाती है। सैलानियों की बढ़ती आवाजाही ग्रामीणों के लिए आमदनी का जरिया भी बन रही है। होम स्टे से जुड़े ग्रामीण भुवन ढौंढियाल का कहना है कि गांव में कार्यक्रम शुरू होने से ग्रामीणों के आजीविका के साधनों में वृद्धि हो रही है। गाँव के पढे़-लिखे बेराजगार युवाओं के पलायन में कमी आई है। सैलानी पर्वतीय भोजन को बहुत चाव से खाते है।

एक साल में 2 लाख रूपये की आमदनी

रामनगर। कार्बेट ग्राम विकास समिति के कार्यकारी निदेशक राजेश पंवार ने बताया कि वर्तमान में समुदाय आधारित पर्यटन कार्यक्रम से गाँव के करीब  25 लोग परिवार लाभान्वित हो रहे हैं। 1 अक्टूबर 2009 से 1 सितंबर 2010 तक कुल 530 सैलानी होम स्टे कर चुके है। जिनमें से 52 विदेशी शामिल है। इन सैलानियों से 2 लाख रूपये की आमदनी हुई है। कार्यक्रम में अन्य ग्रामीणों को भी शामिल करने का प्रयास किया जा रहा है। वर्तमान पर्यटक सीजन के लिए होम स्टे में रूकने के लिए उनके पास लगातार देश-विदेश के विभिन्न शहरों से पर्यटकों के ई-मेल व फोन आ रहे हैं। 

क्या खास है होम स्टे में

- सैलानियों को कुमाऊंनी व्यंजन परोसना
- सांस्कृतिक संध्या के तहत झोड़ा, चांचरी होते हैं प्रस्तुत 
- दो सैनानियों की एक रात की फीस 1500 रूपये
- कार्बेट संग्रहालय, गांव भ्रमण, रात में रहने व भोजन की सुविधा
ग्रामीणों को लाभ
- 25 ग्रामीण सीधे जुड़े हैं समुदाय पर्यटन से
- ग्रामीणों को मिलता है फीस का 15 प्रतिशत 

Saturday, November 6, 2010

कश्मीरियों को जीने दो उनके हिस्से की आजादी

कश्मीरियों को डेमोक्रोटिक स्पेस देने की वकालत

सरकारें व सेना कश्मीर को लेकर गंभीर नहीं

फिल्म निदेशक संजय काक से बातचीत

                                                     (जहांगीर राजू रुद्रपुर से)

कश्मीर को लेकर बनी फिल्म जश्ने आजादी के निदेशक संजय काक का कहना है कि हमें कश्मीरियों को उनके हिस्से की आजादी जीने देनी चाहिए। उन्होंने कश्मीरियों को डेमाक्रोटिक स्पेस दिए जाने की वकालत की हैं। उन्होंने कहा कि वहां सरकारें व सेना कश्मीर को लेकर कभी भी गंभीर नहीं रही। इसीलिए कश्मीर में आज ऐसे हालत पैदा हो गए हैं जहां न तो लोगों का सरकार पर विश्वास है और नहीं सेना लोगों का विश्वास जीत पायी है।
फिल्म निदेशक संजय काक ने कहा कि कश्मीर को अब हमें अलग से पहचान दिए जाने की जरुरत है, ताकि दुनिया के सबसे खुबसूरत हिस्से में वहां के लोग आजादी से सांस ले सकें। उन्होंने कहा कि कश्मीरियों का सेना द्वारा किया गया दमन व सरकारों की उपेक्षा ने उन्हें सेना व सरकारों से दूर कर दिया है। उन्होंने बताया कि वह मूलरुप से कश्मीर के पंडित हैं। क्षेत्र में रहकर अबतक किए गए उनके अध्ययन के मुताबिक कश्मीर के लोग सदियों से गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहे हैं। देश की आजादी के बाद भी उन्हें वास्तविक डेमोेक्रेटिक स्पेश नहीं मिल सका। स्थिति यह रही कि मिलीटेंसी के नाम पर वहां लाखों की संख्या में सेना तैनात कर दी गयी।
इस बीच वहां बनी सरकारों ने भी कश्मीर की जनता के दर्द को जानने की कोशिश नहीं की। यही कारण है कि कश्मीर के लोगों का न वहां की सरकारों पर विश्वास है और नहीं आर्मी ही उनके विश्वास को जीत पायी है। जिसके चलते कश्मीर की जनता पूरी तरह से नेतृवविहीन हो चुकी है। वर्तमान में क्षेत्र के युवाओं का सडक़ों पर उतरकर पत्थरबाजी करना इसका प्रमाण है। संजय काक का मानना है कि कश्मीर के लोगों का पाकिस्तान पर भी कतई विश्वास नहीं है। ऐसे में यदि वहां के लोगों को स्वतंत्र पहचान देकर डेमोक्रोसी को बहाल करने की बात की जाती है तो वह आसानी से पूरी तरह से भारत के साथ जुड़ सकते हैं। इटली व जर्मनी से लगे क्षेत्र में इस तरह के प्रयोग सफल हुए हैं। बुकर एवार्डी अरुंधती राय के बयान को लेकर काक का कहना है कि वह किसी की व्यक्तिगत राय पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देना चाहते हैं, लेकिन जबतक कश्मीर के लोगों के दुखदर्द को समझने के लिए वहां की सरकारें व आर्मी आगे नहीं आएगी तबतक कश्मीर में अराजक माहौल कायम रहेगा। सरकारों व सेना ने कश्मीर की जनता का विश्वास जीतना होगा। इस क्षेत्र में धरातल पर अबतक कोई भी पहल शुरु नहीं हो पायी है। उन्होंने कहा कि जश्ने आजादी फिल्म के माध्यम से कश्मीर की हकीकत को बयां करने का प्रयास किया गया है, जिसके बाद से ही देश में कश्मीर व वहां के लोगों की स्थिति को लेकर राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर बहस शुरु हुई है।
वह कहते हैं कि जब कश्मीर में मात्र सात सौ मीलिटेट ही बचे हुए हैं तब सात लाख की फौंज को वहां रखकर सरकार क्या करना चाहती है इसका जवाब किसी के पास नहीं है। वह कहते हैं कि क्षेत्र में सेना के दखल को कम कर आमजन के बीच लोकतंत्र को मजबूत बनाने के प्रयास किए जाने चाहिए। उन्होंने कहा कि जबतक कश्मीर का आम आदमी सेना व सरकारों के दो पाटों के बीच पीसता रहेगा तबतक कश्मीर में वहां के नागरिकों की आजादी की कल्पना बेमानी ही साबित होगी।

Tuesday, November 2, 2010

Second Film Festival in Nainital

                                      dedicated to                                 
Actor Nirmal Pandey and poet Girish Tewari Girda 

(Rajeev from Nainital)
 The three day Second Film Festival in Nainital provided a treat of
meaningful cinema to the viewers besides paying glowing tributes to
Bollywood actor Nirmal Pandey and poet Girish Tewari who was better
known as Girda.
 “Daayen ya Baayen”, a first movie of its kind that has the life and
problems of Uttarakhand at its core was screened at the event on the
opening day much to the liking of the locals. Bela Negi who is the
scriptwriter, director and
editor of the film is a girl who spent her formative years in Nainital
which is her hometown.

Dignataries inaugurating the Smarika of Film Festival

The film is unique in the sense as it is the
the state which is amongst the youngest in the Indian democracy.
Another highlight of the film is that eminent poet Girish Tewari  who
is fondly known as Girda, has acted in the film. Girda passed away in
August this year and has a mass following in the region. Incidentally,
the entire star cast of the film is from Uttarkhand.
The protagonist in the movie “Daayen ya Baayen” moves back to a
village in Bageshwar after working in serials. He gets employment in a
school as a teacher and dreams of setting up a performing arts academy
in the hills. He comes across the ills that ailing the culture of the
hills at present. There are computers but no teachers. Teachers are
more interested in knitting than teaching. The women in the village
are falling prey to the regressive television serials and the entire
culture of market oriented consumerism is creeping in. It is amidst
such a scenario that the protagonist played by Deepak Dobariyal
pursues his dream.
The festival had opened with two documentaries on Girda and Nirmal
that were made by Pradeep Pandey and edited very well by Sunil Bora.
While Pandey had gone on to make a name for himself in Bollywood
giving acclaimed performances in movies like “The Bandit Queen”, “Is
Raat ki Subah Nahin”, “Godmother” and “Daayra”, Girda had stuck to his
roots trying to shake the common man out of stupor and fight for his
rights till the day he was alive. The first one on Girda has been duly
named as “Salaam Girda”. It talks about the multi faceted personality
that was Girda. It
has excerpts of Girda rendering the poetry penned by him over the
years. It also reflects what the poet had to say about the new state
that was to be formed as Girda fought for it in the decade of the 90s.
The movie also has Girda’s viewpoints on issues like education and the
policy that is required to take Uttarakhand forward. Girda had died a
disillusioned man as his dreams of Uttarakhand being a people’s state
with their welfare at its core lay shattered.
The second movie on Nirmal Pandey aptly named as “Kidhar Se Aaya kahan
Gaya Woh” talks about Nirmal’s
journey from a schoolboy in the small town of Nainital to the fame
that filmdom has to offer. The movie shows how Nirmal was attracted
towards theatre amidst an upbringing in an ordinary middle class house
hold and how he went on to struggle hard to get his due in Bollywood.
Few people are aware of the fact that he had chucked a government job
to pursue his passion.
The opening session of the festival was marked by honoring of artist B
Mohan Joshi and academician Prayag Joshi who hail from this region. A
souvenir was also released on the occasion that mainly contains write
ups on Nirmal and Girda.
A bonanza of short films had awaited the viewers on the second day of
the Festival on Saturday. The audience was treated to a series of
films on contemporary issues of national and international importance.
The day had begun with a small film on folk balladeers of Champawat
region of Uttarakhand “The Legends of Joshia Dhamai” that was made by
Sudhir Gupta. It contained large excerpts of Girda explaining the
relevance of the art form in the modern world. Girda was an exponent
of the folk and culture of Uttarakhand.
The pick of the day however was the Persian movie by Bahman Gobadi
“Turtles can fly”. Shown with the English subtitles, the movie deals
with the plight of children in a war ravaged country brilliantly
depicting the suffering of humanity at the altar of politics of war.
The movie is about the children injured in war living in a village in
Iraq. Made in 2004, it is set in a Kurdish refugee camp on the
Iraqi-Turkish border on the eve of the United States’ invasion of
Iraq. The protagonist who is a 13 year old Satellite (Soran Ebrahim)
is known for his installation of dishes and antennae for local
villagers who are awaiting the news of the fall of Iraqi President
Saddam Hussein. He is also known for his limited knowledge of English.
However, he is the dynamic, but manipulative leader of the children,
organizing the dangerous but necessary sweeping and clearing of the
minefields.
The industrious Satellite arranges trade-ins for unexploded mines. He
falls for an orphan named Agrin (Avaz Latif), a sad-faced girl
traveling with her disabled, but smart brother Hengov, who appears to
have the gift of clairvoyance. The siblings care for a blind toddler,
who happens to be the son of young Agrin who was raped several years
ago.
Later in the day a film named “For Maya” made by Vasudha Joshi was
screened. It deals with four generations of women in the hills of
Uttarakhand and presents a picture of the plight and status of women
in Uttarakhand. Vasudha’s another movie “Almodiyana” was screened on
Friday evening. The movie brings to life the unique Dussehra
celebrations of Almora.
The other movies screened during the day were “ Andhere se Pehle” by
Ajay TG, “From Hindu to Hindutva” by Debranjan Sarangi,“Kithe mil ve
Mahi” by Ajay Baharadwaj, “Khargosh” by Paresh Kamdar and “Niyamraja
ka Vilap” by Surya Shankar Dash.
These films on socio-economic and political topics that have a
significant relevance in the present day scenario of the nation
managed to make a good impact at the Festival. One of the movies that
generated a debate was “Kithe mil ve Mahi”. The film very effectively
deals with issues related to the Dalits in Punjab, a subject that has
mostly been swept under the carpet. It depicts what the Dalits who
have strived hard and have managed to become vocal on the issues
related to them, have to say on the socio-political processes in the
nation. It has excerpts from interviews of Dalit Qawwal BS Balli

Mr. Jahoor Alam introduing the actors to the viewers in Film Festival

Paslewale, Dalit poet and a convert to Islam Lal Singh Dil and one of
the last “heroes” of the Gadar movement Baba Bhagat Singh Bilga. A
very strong statement issued in a stoic manner,”Jo log ladte nahin
hain unhe gulam bana liya jaata hai (Those who do not fight are
subject to slavery)” underlines the tone and tenor of the movie.
The director has delved into the roots of Sufism as it prevails in the
Punjabi culture in the modern times. Participating in a talk after the
film, famous film maker Sanjay Kak,”Contrary to the general perception
of Sufis being Malangs and disassociated with the  social happenings,
I want to say that Sufism has been very radical in making strong
political statements. This is visible both in Kashmir as well as other
parts of the country.”
Another film that dealt with the issue of communal strife and
intolerance that have been on the rise in the country over the last
two decades was “From Hindu to Hindutva” by Debranjan Sarangi. Shot
after the Kandamahal riots, the movie talks about the processes and
forces that lead to communal or sectarian polarization in society.
These processes have been visible at several places including Gujarat
over the last two decades. The director has tried to depict why Dalits
and Adivasis were pitted against each other and how religion was used
as a potent tool by right wing forces to foment trouble across the
region in which 38 people were killed while three went missing. The
director has asserted that the Indian middle class and its mindset has
a major role in the processes of polarization that are at work in the
country.
Yet another film dealing with the contemporary issue of acquisition of
land belonging to tribals in the name of development made a mark at
the festival. “Andhere se Pehle” by Ajay TG deals with the fight of
the tribals against the attempt of the government to “usurp” their
land for starting a thermal plant in Raigarh district of Chattisgarh.
Meaningful cinema that provided good entertainment has also been a
part of the festival. In this category “Khargosh” by Paresh Kamdar and
“Chutkan ki Mahabharat” were shown and applauded by the audience.
The take of the final day was Sanjay Kak’s “Jashn-e-Azadi” that delves
into the issue of what Azadi means to Kashmiris.
The film traces the developments in Kashmir right from the first
movement for Azadi in early nineties to what was happening in 2007. In
between he talks of the migration of Kashmiri Pandits, the arrival or
mercenaries from abroad, the phase of counter insurgency led by
Ikhwans, the movement being led by groups in favour of Pakistan and
then the disillusionment with both India and Pakistan. It talks of
what Azadi or freedom means to Kashmiris. The film also traces how the
youth there has lost faith in both the legal system, the human rights
groups and other institutions.



a comedy, it hits hard at the prevailing socio-economic scenario of