◙ भूपेन सिंह
‘शासक वर्ग ऐसे बुद्धिजीवियों और संस्कृति नियंताओं को काम में लगाता है जो प्रभुत्वशाली संस्थाओं और जीवनशैलियों का महिमंडन करने वाले विचारों की उत्पत्ति करते हैं। ये बुद्धिजीवी साहित्य, प्रेस, फिल्म और टेलीविजन जैसे माध्यमों में शासक वर्गीय विचारों का प्रोपेगैंडा करते हैं।’-मीनाक्षी गिगि दुरहम और डगलस एम केलनर अयोध्या मामले में क्या हाईकोर्ट के फैसले ने भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को बचा लिया है? आप मानें या न मानें बुद्धिजीवियों का बड़ा हिस्सा कोर्ट के फैसले को जायज ठहराने में जुटा है। जन संचार माध्यम इस फैसले की तरह-तरह से व्याख्या कर रहे हैं। जिनमें से ज़्यादातर का रुख या तो भाजपाई (संघी) है या फिर कांग्रेसी। संघी मानसिकता वाले बुद्धिजीवी बहुत ही रणनीतिक तरीके से फैसले को सही ठहरा रहे हैं और इसे हिंदू आस्था की जीत बता रहे हैं। जबकि कांग्रेसी इस फैसले को बहुलतावाद के पक्ष में और शांति की ओर ले जाने वाला बता रहे हैं। ऐसे में सवाल ये है कि क्यों दो धुर विरोधी राजनीतिक दल एक ही फैसले को अपने-अपने तरीके से सही बता रहे हैं। इस सिलसिले में अगर अयोध्या फैसले के अगले दिन प्रकाशित तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों का विश्लेषण किया जाए तो साफ हो जाता है कि उनके शब्दों के पीछे किस तरह की पक्षधरता छुपी है।
तीस सितंबर को इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच की तरफ से अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाये जाने के बाद एक अक्टूबर को कमोबेश दिल्ली के हर अखबार ने इसे पहले पन्ने पर बैनर हेडलाइन (पहली सुर्ख़ी ) बनाकर छापा। इसके अलावा भी भीतरी पृष्ठों पर पूरे मामले को काफी जगह दी गई। ज़्यादातर अखबारों ने फैसले पर संपादकीय भी लिखे। लेकिन सभी खबरों और विश्लषणों को पढऩे के बाद लगता है कि हमारा मीडिया संघी शब्दों, संकेतों और विचारों को अपनाते हुए किस तरह पूर्वाग्रहों से ग्रसित है और छद्म राष्ट्रवाद में नहाया हुआ दिखा।
इस सिलसिले में सबसे खतरनाक भूमिका रही देश में सबसे यादा प्रसार संख्या वाले अखबार दैनिक जागरण की। एक अक्टूबर के अखबार में पहले पन्ने पर बैनर हैडलाइन में उसने लिखा- ‘विराजमान रहेंगे राम लला’, इसके नीचे सब हेडिंग में ये भी लिखा कि ‘विवादित ढांचा इस्लामी मूल्यों के खिलाफ, इसलिए मस्जिद नहीं माना।’ अब अगर इस खबर के इंट्रो पर गौर करें तो उसमें लिखा है कि ‘रामलला जहां हैं वहीं विराजमान रहेंगे, ये उनका जन्मस्थान है।’ खबर को इस तरह से लिखा गया है कि जिससे सीधे-सीधे एक समुदाय विशेष का पक्ष साफ दिखाई दे। जिसमें पत्रकारिता की शब्दावली में न्यूनतम वस्तुनिष्ठता का भी ध्यान नहीं रखा गया है। अखबार ने पहले ही पृष्ठ पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की आक्रामक मुखमुद्रा वाली फोटो के साथ खबर छापी है। जिसमें उन्होंने भव्य राम मंदिर के निर्माण का आह्वान किया।
हैरानी की बात ये है कि जागरण के उलट कई अखबारों ने मोहन भागवत को शांति की अपील करते हुए भी दिखाया। इस अखबार के भीतरी पन्नों में भी धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाली कई इसी तरह की अनाप-शनाप चीजें भरी पड़ी हैं। संपादकीय पन्ने में तीन लेख हैं और तीनों इस मामले पर हिंदू वर्चस्व का पक्ष लेते हैं। आस्था पर ‘अदालत की मुहर’ नाम से भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद का एक प्रमुख लेख है। उसके नीचे संघ समर्थक सुभाष कश्यप का तर्क है ‘मंदिर की मान्यता की पुष्टि’, बगल में कांग्रेसी राशिद अलवी का लेख है ‘मस्जिद की जिद छोड़ें’। संपादकीय में फैसले को कबूल कर शांति की खोखली अपील कर मीडिया-धर्म निभाया गया। कुल मिलाकर इस अखबार ने बहुसंख्यक हिंदुओं का पक्ष लेने में कोई कोताही नहीं बरती। दूसरे या तीसरे पक्ष के विचारों के लिए इसके पास कोई जगह नहीं।
नई दुनिया लाल रंग की बैनर हेडलाइन में लिखता है: ‘वहीं रहेंगे राम लला’। पहले ही पेज पर अखबार के समूह संपादक आलोक मेहता ने ‘आस्था केलिए न्याय’ नाम से एक विशेष संपादकीय लिखा। जिसमें उन्होंने आस्था को न्याय का पैमाना बनाए जाने पर कोर्ट की तारीफ के पुल बांधे। आम तौर पर कांग्रेसी माने जाने वाले यह संपादक यहां पूरी तरह भगवा नेकर में नजर आते हैं।
जनसत्ता ने अपेक्षाकृत संयम बरतते हुए पहले पेज की पहली हेडलाइन में लिखा है: ‘तीन हिस्सों में बंटे विवादित भूमि’, लेकिन अखबार ने इस मुद्दे पर उस दिन संपादकीय लिखने की जरूरत नहीं महसूस की। अमर उजाला ने दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर से होड़ लेते हुए मुख पृष्ठ में बैनर हैडलाइन पर लिखा: ‘राम लला विराजमान रहेंगे’। इस अखबार ने ‘फैसला माने, भावना समझें’ नाम से संपादकीय लिखा। बाकी संपादकीय पृष्ठ पर ‘अमन की अयोध्या’ नाम से मुख्य धारा के कुछ जाने-माने लोगों के विचार दिए, जिसमें कहा गया कि ‘अदालत के फैसले से सांप्रदायिक सद्भाव की परंपरा मजबूत हुई’। इस अखबार में एक पृष्ठ में फैसले के बारे में तीनों जजों के निर्णयों पर विस्तार से चर्चा की गई है। साथ ही उनकी सामाजिक-मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर भी कुछ बातें की गई हैं। जाहिर है कि सभी बातें तारीफ में कही गई हैं। लेकिन इस तारीफ में उनकी असलियत को आसानी से समझा जा सकता है।
दैनिक भास्कर ने लिखा’ ‘भगवान को मिली भूमि’। बॉटम में अखबार के समूह संपादक श्रवण गर्ग ने के’चुलियां और नकाबें उतरने में वक्त लगेगा’ नाम से टिप्पणी लिखी है। जिसमें अदालत के फैसले का सम्मान कर शांति बनाये रखने की अपील की गई है। बाकी पन्नों में ये अखबार, जनता के अभिभावक जैसे रुख में दिखाई देता है। पहले ही पेज में इस पूरे घटनाक्रम के संदर्भ में ‘देने का सुख- दीजिए सहनशीलता खुद को’ नाम से एक नीति कथा छापी गई।
(समयान्तर के नवम्बर अंक में प्रकाशित)
No comments:
Post a Comment