Thursday, October 21, 2010

बदहाली पर आंसू बहाता जिम कार्बेट संग्रहालय

कालाढूंगी के छोटी हल्द्वानी में बने संग्रहालय की लाइटें कई महीनों से खराब होने से पर्यटक कार्बेट के दस्तावेज देखे बगैर वापस लौट रहे है 

चंदन बंगारी
रामनगर

सरकार भले ही प्रसिद्व शिकारी जिम कॉर्बेट के प्रयासों से स्थापित हुए विश्वप्रसिद्व पार्क से करोड़ों रूपयों का प्रतिवर्ष मुनाफा कमा रही है। मगर मुनाफा कमाने में लगी सरकार व उसके नुमाइंदों के पास कार्बेट की ऐतिहासिक धरोहरें बचाए रखने का समय नही है। जिम कार्बेट की यादगारों को आम लोगों से रूबरू कराने वाले कालाढूंगी स्थित संग्रहालय के दो कमरों की ट्यूब लाईटें व बल्ब कईं महीनों से खराब पड़े हुए है। कईं वर्षों से यह भवन रंग-पुताई एवं रखरखाव को तरस रहा है। 
गौरतलब है कि जिम कार्बेट ने 1915 में कालाढंूगी के पास छोटी हल्द्वानी में एक किसान गुमान सिंह से 1500 रूपये में खरीदी 221 एकड़ जमीन पर एक आदर्श गाँव बनाने का सपना देखा था। उन्हांेने रहने के मकसद से 1922 में एक आयरिश स्टाइल का बंगला बनवाया था। बंगले में वह जाड़ों के समय रहते थे। आजादी के बाद केन्या लौट जाने पर उनके आवास को सन् 1965 में तत्कालीन वन मन्त्री चौधरी चरण सिंह के प्रयासों से संग्रहालय के रूप में विकसित किया गया। संग्रहालय का प्रबंधन कॉर्बेट टाईगर रिजर्व के हाथों में है। जहाँ सरकार कॉर्बेट टाईगर रिजर्व पर करोड़ों रूपये खर्च कर रही हैं, वहीं कॉर्बेट संग्रहालय की कोई सुध लेने वाला नही है। कईं वर्षों से संग्रहालय के प्रवेश द्वार के आस-पास का फर्श जीर्ण-शीर्ण हालत में होने के साथ ही चारदीवारी भी कईं जगह पर टूटी चुकी है। बरसात से भवन की एक दीवार में दरार आ गई है। कई सालों से भवन में रंगाई पुताई तक नही हो सकी है।  संग्रहालय के कमरों में जिम कॉर्बेट के जीवन पर प्रकाश डालने वाली विभिन्न पेन्टिंग, फोटो, दस्तावेज व उनके द्वारा प्रयोग की गई विभिन्न सामग्री मौजूद है। मगर दो कमरों की सभी ट्यूब लाईटें व बल्ब कईं महीनों से खराब होने की वजह से पर्यटक कार्बेट के दस्तावेजों की जानकारी से महरूम होकर वापस लौट रहे हैं।

संग्रहालय में प्रतिवर्ष करीब 25 से 30 हजार देशी-विदेशी पर्यटकों की आमद से वन विभााग को करीब ढाई लाख रूपये का राजस्व प्राप्त होता है। मगर कार्बेट का संग्रहालय व उनके द्वारा लगाया गया आम व लीची का बाग सिंचाई के पानी को तरस रहा है। पानी न होने से कईं पुराने वृक्ष सूखकर गिरने के साथ ही सौन्दर्यकरण के लिए लगाए गए अनेकों प्रजाति के रंग-बिरंगे फूलों के पेड़ भी सूखते जा रहे हैं। हालत यह है कि कॉर्बेट द्वारा सन् 1947 में यहाँ से कीनिया जाने के बाद मित्र जगत सिंह नेगी को लिखे गये पत्र की प्रतिलिपि संग्रहालय में पर्यटकों के देखने के लिए रखी गई प्रतिलिपि भी करीब दो माह से संग्रहालय से नदारद है। संग्रहालय की अव्यवस्थाओं के बारे में इंचार्ज उमेद सिंह नगरकोटी व कार्बेट विकास समिति के निदेशक राजेश पंवार कईं बार कॉर्बेट टाईगर रिजर्व मुख्यालय को लिखित व मौखिक रूप से सूचित कर चुके हैं, मगर कोई कार्रवाई न होने से वह निराश है। 

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बजट का प्रस्ताव एनटीसीए को भेजा गयाः पार्क वार्डन

रामनगर। कार्बेट पार्क के वार्डन यूसी तिवारी का कहना है कि हैरिटेज भवन की खराब हालत को ठीक करने के लिए केंद्र सरकार की एजेंसी सीईई को पत्र लिखा गया था। प्रतिनिधियों ने पिछले दिनों संग्रहालय के भवन को देखा था। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में भवन को ठीक करने में आने वाले व्यय व अपने मत को लिखा है। उन्होंने कहा कि भवन को ठीक करने के लिए एनटीसीए व अन्य संस्थाओं को बजट के लिए प्रस्ताव भेजा गया है। उन्होंने कहा कि कमरे के बल्ब अगर जल नहीं रहे है तो उन्हें ठीक कराया जाएगा। उन्होंने पानी के लिए सिंचाई विभाग द्वारा नहर बनाने को प्रस्ताव को पत्र लिखकर सहमति दी थी।

हिन्दी फीचर फिल्म "दायें या बायें" में नजर आयेंगे गिरदा

29 अक्टूबर को नैनीताल फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित होगी फिल्म

नैनीताल की मूल निवासी बेला नेगी के निर्देशन में बनी इस फिल्म में अधिकांश किरदार उत्तराखण्ड के कलाकारों ने निभाये हैं.


                                                              (जहांगीर राजू, रुद्रपुर से)

फिल्म के मुख्य अभिनेता दीपक डोबरियाल के साथ स्व. गिरदा
  नैनीताल फिल्म महोत्सव की शुरुआत नैनीताल की मूल निवासी बेला  नेगी की हिन्दी फीचर फिल्म “दायें या बायें” से होगी. इस फिल्म में उत्तराखण्ड के मशहूर रंगकर्मी गिरीश तिवारी “गिरदा” ने भी महत्वपूर्ण रोल अदा किया है. वह इस फिल्म में शिक्षक की जिम्मेदाए भूमिका में नजर आयेंगे. इस फिल्म के माध्यम से पिछले दिनों हमारे बीच से जा चुके गिरदा की प्रतिभा को नये नजरिये से जानने का मौका मिल सकेगा. 29 अक्टूबर को नैनीताल में शुरु होने वाले फिल्म महोत्सव के साथ ही यह फिल्म मुम्बई, दिल्ली और बंगलुरु में रिलीज होने जा रही है. इस साल का नैनीताल फिल्म महोत्सव उत्तराखण्ड के प्रमुख संस्कृतिकर्मी गिरीश तिवारी “गिरदा” और फिल्म अभिनेता स्व. निर्मल पाण्डे को समर्पित किया गया है.
नैनीताल की मूल निवासी बेला नेगी की नई फिल्म “दायें या बायें” उत्तराखण्ड की पृष्टभूमि पर बनी अब तक की शायद सबसे चर्चित फिल्म है. किसी बड़ी स्टारकास्ट की अनुपस्थिति के बावजूद  यह फिल्म रिलीज होने से पहले ही चर्चित हो चुकी है. इसके कथानक और कलाकारों के बारे में जितना सुना गया है उससे यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उत्तराखण्ड के एक छोटे से गांव के आम आदमी पर केन्द्रित यह फिल्म अब तक बालीवुड में बनी सफल आफबीट फिल्मों में अपना नाम जरूर दर्ज करायेगी.
फिल्म निर्देशक बेला नेगी के साथ दीपक डोबरियाल
एफ.टी.आई. पूना से प्रशिक्षित बेला नेगी के अनुसार इस पूरी फिल्म की शूटिंग उत्तराखण्ड के नैनीताल, अल्मोड़ा, मुन्सयारी, चौकोड़ी और बागेश्वर में की गई है. इस फिल्म की एक खास बात यह भी है कि 2-3 कलाकारों के अलावा सभी लोग स्थानीय रंगमंच के कलाकार हैं. फिल्म के मुख्य पात्र मजिला का रोल उत्तराखण्ड मूल के ही दीपक डोबरियाल ने निभाया है जिन्हें “ओमकारा” जैसी हिट फिल्म के लिये कई पुरस्कार मिल चुके हैं. उत्तराखण्ड में पलायन एक विकराल समस्या है. फिल्म का मुख्य पात्र भी गांव से पलायन कर शहर जाता है लेकिन जल्दी ही ऊब कर गांव में वापस आ जाता है. एक प्रतियोगिता में उसको एक कार मिलती है, लेकिन उसके बाद कई ऐसे घटनाक्रम होते हैं कि वो अपने ही गांव में सहजता से जीवन यापन नहीं कर पाता. इस तरह यह फिल्म  “माजिला” की जिन्दगी में Reverse Migration के बाद पैदा होने तमाम उतार-चढावों पर आधारित है. माजिला की जिन्दगी के दर्शन करते-करते इस फिल्म में दर्शकों को उत्तराखण्ड के ग्रामीण जीवन की दिनचर्या और जीवन संघर्ष की झलक भी मिलेगी.  
  दायें या बायें का ट्रेलर  आप यूट्यूब के इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं.

Sunday, October 17, 2010

कार्बेट पार्क आने वाले पर्यटकों की सुरक्षा पर होगा अब विशेष ध्यान




कार्बेट पार्क के जिप्सी चालकों का होगा पंजीकरण

नेचर गाइडो की तर्ज पर होने वाले पंजीकरण से कार्बेट पार्क में पर्यटकों को घुमाने वाले चालकों को डाटा तैयार किया जाएगा

चंदन बंगारी
रामनगर

कार्बेट नेशनल पार्क में पर्यटक को घुमाने वाले जिप्सी चालकों अब बगैर पंजीकरण के भीतर नहीं जा सकेंगे। नेचर गाइडों की तर्ज पर चालकों पंजीकरण कर डाटा तैयार किया जाएगा। नई व्यवस्था के तहत हो रहे पंजीकरण के बाद प्रत्येक चालक को एक परिचय पत्र दिया जाएगा। अब पार्क के भीतर केवल पंजीकृत चालक की पर्यटकों को अंदर ले जा सकेंगे। पार्क वार्डन का कहना है कि इससे बगैर लाइसेंस पर्यटकों को पार्क में घुमाने वालों पर नकेल कसेगी। 
बतातें चले कि कार्बेट पार्क में करीब 300 जिप्सिया पर्यटकों को घुमाने के लिए लगी हुई है। इनमें से कई जिप्सियों के चालकों के पास लाइसेंस तक नही है। नौसिखिया चालक पर्यटकों की जान से खिलवाड़ करते हुए उन्हें घुमाते है। कई बार जिप्सी चालकों द्वारा पर्यटकों को पार्क के भीतर तय रूटों पर घुमाने की बजाय दूसरे रूटों पर घुमाने की शिकायत मिलती रहती है। नियमों का उल्लंघन करने वाले जिप्सी चालकों का पता नही चलने पर उसके खिलाफ कार्रवाई नही हो पाती है। अब कार्बेट महकमा ने जिप्सी चालकों के पंजीकरण को लेकर गंभीर रूख अपनाया है। जिसके तहत जिप्सी चलाने वाले प्रत्येक चालक को कार्बेट कार्यालय में अपना अनिवार्य रूप से पंजीकरण कराना होगा। जिसके तहत उन्हें ड्राइविंग लाइसेंस की फोटो कापी, पता, एक फोटो, मोबाइल नंबर, वाहन नंबर व वाहन स्वामी का नाम देना होगा। सभी कागज जमा करने के बाद चालक को परिचय पत्र आइकार्ड दिया जाएगा। जिसको दिखाने के बाद ही जोन को जाने वाले गेटों में प्रवेश दिया जाएगा। कार्बेट प्रशासन दशहरे के बाद इसके बारे में सूचना कार्यालय में चस्पा करेगा। वहीं प्रत्येक चालक को नए नियमों के बावत अवगत कराया जाएगा।
पार्क वार्डन यूसी तिवारी ने बताया कि पंजीकरण के आधार पर जिप्सी चालकों का डाटा तैयार किया जाएगा। यदि चालक द्वारा पार्क के भीतर कोई अपराध व नियमों का उल्लंघन किया गया तो उसको जिप्सी नंबर के आधार पर पकड़ लिया जाएगा। परिचय पत्र बनाने के लिए किसी भी प्रकार की फीस नही ली जाएगी। उन्होंने बताया कि नवंबर के पहले सप्ताह तक चालकों को परिचय पत्र दे दिए जाएंगे। उन्होंने उम्मीद जताई कि नंवबर के दूसरे सप्ताह तक यह व्यवस्था लागू कर दी जाएगी।  




कार्बेट का बिजरानी जोन पर्यटकों के लिए खुला

रामनगर। जिम कार्बेट नेशनल पार्क का बिजरानी जोन 17 अक्तूबर से पर्यटकों के लिए खोल दिया गया है। इस बार यह जोन दो दिन देरी से खोला गया है। क्षेत्र में हुई भारी वर्षा से बिजरानी जोन की सडक़ें टूट जाने के कारण दो दिन देरी से पर्यटकों के लिए खोला गया। हर वर्ष 15 अक्तूबर से यह जोन पर्यटकों के लिए खोल दिया जाता था। बिजरानी जोन के कई क्षेत्र अब भी सडक़ें दुरुस्त नहीं होने के कारण पर्यटकों की पहुंच से दूर रहेंगे। जोन में मलानी, फायरलैंड, रिंगौड़ा व चीतल रोड क्षेत्र की सडक़ें दुरुस्त नहीं होने के कारण पर्यटक यहां नहीं जा सकेंगे। पार्क वार्डन यूसी तिवारी ने बताया कि बिजरानी जोन की सभी सडक़ें एक सप्ताह के भीतर दुरुस्त कर ली जाएंगी। सडक़ों के दुरुस्त होने के साथ ही पर्यटक पूरे जोन को आसानी से देख सकेंगे। बताते चलें कि इससे पहले पर्यटकों के लिए मात्र झिरना जोन ही पर्यटकों के लिए खोला गया था। जिसके चलते पर्यटक अन्य क्षेत्रों में जाकर जंगली जानवरों के दीदार नहीं कर पा रहे है। अब पार्क का बिजरानी जोन खुलने के साथ ही कार्बेट पहुंचने वाले पर्यटकों की संख्या बढऩे लगी है। 






Thursday, October 14, 2010

ऐतिहासिक है कुमाऊं का तालेश्वर गांव

पुरातत्व विभाग के पास नही है ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजनें का वक्त

चन्दन बंगारी रामनगर

देव भूमि उत्तराखण्ड के मंदिर न सिर्फ आस्था के केन्द्र है बल्कि अपने भीतर कई शताब्दियों का इतिहास भी समेटे हुए है। ये प्राचीन मन्दिर उत्कृष्ट वास्तु शिल्प एवं बेहतरीन हुनर का नायाब उदाहरण हैं। इन्हीं में से एक कुमाऊं के अल्मोड़ा जिले के तालेश्वर गांव में स्थापित ऐतिहासिक प्राचीन शिव मन्दिर है। मंदिर के भीतर स्थापित शिवलिंग व परिसर में लगी मूर्तियां तीसरी व चौथी सदी के आस पास की बताई जाती है। मन्दिर के आसपास लगातार अनेक पुरातन कालीन मूर्तियां व तराशे पत्थर ग्रामीणों को लगातार ही मिल रहे है। इनका वास्ता कई सदियांे पूर्व का है। मगर सरकार व पुरातत्व विभाग की बेरूखी से गांव वाले काफी मायूस है।
कुमाऊं व गढ़वाल की सीमा पर तालेश्वर गांव स्थित है। अल्मोड़ा जिले के अर्न्तगत आने वाले गांव की आबादी साढ़े तीन सौ के करीब है। एक किलोमीटर के दायरे मे फैले गांव में अनेक ऐतिहासिक व पौराणिक चीजें है जिनके अन्वेषण से इतिहास की नयी राह मिल सकती है। तालेश्वर गांव 1963 मे उस वक्त सुर्खियो मे आया था, जब इस गांव के निवासी सदानन्द शर्मा गांव मे मिले दो ताम्रपत्रों को लेकर संग्राहलयो के चक्कर लगा रहे थे। ये ताम्रपत्र गांव के ग्रामीणो को 1915 में एक खेत खोदते वक्त मिले थे। ताम्रपत्रों को ग्रामीणों ने पास ही बने मंदिर में रखवा दिया था। सदानन्द शर्मा ने इन ऐतिहासिक ताम्रपत्रों को महत्व समझते हुए इन्हंे लखनऊ स्थित संग्रहालयों मे रखवा दिया। इन ताम्रपत्रो पर जब अध्ययन किया गया तो पता चला कि ये ताम्रपत्र पांचवी सदी के ब्रहमपुर नरेशांे द्वारा बनवाए गए थे, जो ब्राह्मी लिपि मे लिखे गये थे। इन ताम्रपत्रांे मंे एक ताम्रपत्र ब्रहमपुर के राज्य के नरेश ध्रुतिवर्मन तथा दूसरा ताम्रपत्र राजा विष्णुवर्मन द्वारा पांचवी सदी मे बनवाया गया था। इन दो ताम्रपत्रों मे लिखी गयी लिपि उड़ीसा मे मिले शिलालेखो की लिपि से मिलती जुलती है। इन ताम्रपत्रों के अलावा समय समय पर यहां के निवासियो को पुराने समय की प्राचीन मूर्तिया व अन्य अवशेष मिलते रहे है। इन मूर्तिया मे गणेश की मूर्ति तकरीबन चौथी सदी के आस पास बताई जाती है।
 इसके अलावा यहां भैरव, नन्दादेवी,वामनस्वामी (विष्णु के पैरो की मूर्ति) के अलावा दर्जनो मूर्तिया मिली है। इनमंे से कई मूर्तियां दक्षिणी कला शैली की मानी जाती है। हालांकि पांचवी सदी मे गढ़वाल व कुमाऊं को मिलाकर बने पर्वताकार राज्य की राजधानी ब्रहमपुर के अवशेष यहां मिलते तो है मगर इतिहासकारों के इस राजधानी के सवाल पर एक मत न होने से यह विवाद का विषय है। कोई राजधानी को ब्रहमपुर मंडी नेपाल, कोई द्वाराहाट तो कोई श्रीनगर तक बताता है। 1992 मे यहां प्रसिद्व इतिहासकार डा0 शिवप्रसाद ने दौरा कर यहां मिली वामनस्वामी की मूर्ति को ताम्रपत्र मे उल्लेखित बताया साथ ही यहां खुदाई कर अन्य चीजो को भी खोजे जाने की बात कही थी। फरवरी 2008 मे यहां लाल ईंटो की दीवार जो जेड आकार लिये हुए है जमीन मे दबी हुई मिली। इस दीवार मे लगी लाल ईंटो की पड़ताल करने से पता चला की ये ईंटे कुषाण कालीन 1800 साल पुरानी ईंटे है। कई इतिहासकारों ने यहां मिले अवशेषो से इसे 2000 वर्ष पुरानी विकसित सभ्यता माना है। इस गांव के निवासी पुरूषोत्तम शर्मा कहते है कि तालेश्वर गांव अपने आप मे कई रहस्य समेटे हुए है। अगर गंभीरता से इस गांव के खुदाई व पड़ताल की जाये तो यहां ढेरो मूर्तिया व अवशेष मिल सकते है।
 क्षेत्र के जिला पंचायत सदस्य पूरन रजवार का कहना है कि ऐतिहासिक धरोहरों को संरक्षित करने के लिए उन्होंने कई बार अल्मोड़ा व देहरादून में पुरातत्व विभाग को पत्र व्यवहार किया। मगर पुरातत्व विभाग के अधिकारियों के पास इन धरोहरों को देखने तक के लिए समय नही है। 
बहरहाल गांव के लोगो द्वारा पुरानी सभ्यता के अवशेषो को सहेजकर रखना काबिले तारिफ है। मगर पुरातत्व विभाग को भी जरूरत है कि इसके संरक्षण की ओर कोई ठोस पहल करें। जिससे आने वाली पीढ़ी के लिए ये सारी चीजें इतिहास के पन्नों तक ही सिमट कर ना रहे जाएं।

Tuesday, October 12, 2010

नैनीताल फिल्म महोत्सव अब 29 से 31 अक्टूबर तक

सार्थक सिनेमा को लोकप्रिय बनाने की उल्लेखनीय पहल

डा. प्रयाग जोशी व बी मोहन नेगी सम्मानित होंगे

गिर्दा व निर्मल पांडे को होगा समर्पित

स्थान-शैलेहाल नैनीताल
              
जहांगीर राजू (रुद्रपुर से)

जन संस्कृति मंच के सहयोग से युगमंच नैनीताल का तीन दिवसीय फिल्म महोत्सव अब 29 से 31 अक्टूबर तक नैनीताल में होगा। यह फिल्म महोत्सव जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा व फिल्म अभिनेता निर्मल पांडे को समपिर्त रहेगा। इस महोत्सव में सार्थक सिनेमा को आम जन तक पहुंचाने का प्रयास किया जाएगा। महोत्सव में देशभर के प्रख्यात फिल्म व डाक्यूमेटरी निदेशक के पहुंचने की उम्मीद है।
युगमंच के निदेशक जहूर आलम ने बताया कि दुनियाभर के सार्थक सिनेमा को आम जन तक पहुंचाने के उद्देश्य से नैनीताल में पिछले दो वर्षों से फिल्म महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि फिल्म महोत्सव के बहाने देश व राज्य के साहित्यकारों, नाटककारों, चित्रकारों व फिल्मकारों को एक मंच में लाने का प्रयास किया जाता है। उन्होंने बताया कि देश व दुनिया में डाक्यूमेंटरी के माध्यम से बन रही बेहतरीन फिल्मों को महोत्सव में प्रदर्शित किया जाएगा। साथ ही पहाड़ के बड़े फिल्म निर्देशकों की फिल्मों को भी दिखाया जाएगा। महोत्सव में प्रख्यात फिल्म निदेशक अल्मोड़ा निवासी वसुधा जोशी की फिल्म अल्मोडय़ान, वाइसेज फ्राम व फोर माया का प्रदर्शन होगा। पहाड़ की उभरती फिल्म निदेशक बेला नेगी की फीचर फिल्म दायें या बाएं का प्रदर्शन होगा। इस फिल्म में गिर्दा स्कूल के प्रिंसिपल की भूमिका में दिखाई देंगे। यह पूरी फिल्म पहाड़ की पृष्ठभूमि पर तैयार की गयी है। जो शीघ्र ही बड़े परदे पर प्रदर्शित होने वाली है। इस मौके पर प्रदीप पांडे की गिरीश तिवारी गिर्दा व निर्मल पांडे पर बनी डाक्यूमेंटरी का भी प्रदर्शन होगा। इस दौरान चित्रकार बी मोहन नेगी के चित्रों की प्रदर्शनी भी लगायी जाएगी। नाटकों की कड़ी में मोहन थपलियाल रचित अक्ल बड़ी या भैंस का मंचन किया जाएगा। साथ ही 29 सितंबर को बच्चों के सत्र के रुप में बाल फिल्मों का मंचन होगा।
महोत्सव में प्रसिद्ध साहित्यकार डा.प्रयाग जोशी व चित्रकार बी मोहन नेगी को सम्मानित किया जाएगा। महोत्सव में असम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण मुख्य वक्ता के रुप में मौजूद रहेंगे। इस दौरान प्रख्यात फिल्म निदेशकों के बीच फिल्मों व डाक्यूमेंटरी को लेकर चर्चा भी की जाएगी। महोत्सव में फिल्म निदेशक संजय काक, राजीव कुमार, परेश कांदार, दवरंजन सारंगी, अजय पीबी, पंकज चतुर्वेदी, साहित्यकार वीरेन्द्र डंगवाल, पद्मश्री डा.शेखर पाठक, बल्ली सिंह चीमा, अजय कुमार, अजय भारद्वाज आदि भागीदारी करेंगे। 
फिल्म महोत्सव संजय जोशी की देखरेख मे सम्पन्न होगा।

Saturday, October 9, 2010

....अब वैश्विक प्रतिस्पर्धा की तैयारी में पंतनगर विश्विद्यालय

                                 
इंटरनेशनल कालेज आफ एग्रीकल्चर की शुरुआत


किसान मेले पहुंचकर छात्रों ने इंटरनेशनल कालेज के पाठ्यक्रमों की जानकारी प्राप्त की
                      (जहांगीर राजू रुद्रपुर से)

 

गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्विद्यालय पंतनगर अब कृषि के क्षेत्र में बढ़ रही वैज्ञानिक प्रतिस्पर्धा की तैयारी में जुट गया है। जिसके चलते विश्विद्यालय में इंटरनेशनल कूल आफ एग्रीकल्चर की शुरुआत कर दी है। विदेशों के विद्यार्थी इस कालेज में शिक्षा ग्रहण करने के लिए आकर्षित हो रहे हैं। विश्विद्यालय में लगे किसान मेले में पहुंचे विद्यार्थी इंटरनेशनल स्कूल आफ एग्रीकल्चर के पाठ्यक्रमों के बारे में जानकारी प्राप्त कर रहं हैं।
 पंतनगर विश्वविद्यालय में लगे किसान मेले का निरीक्षण करते कुलपति प्रो.बीएस बिष्ट
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 17 नवंबर 1960 में पंतनगर विश्विद्यालय को देश के पहले कृषि विश्वविद्यालय को राष्ट्र को समर्पित किया था। इस विश्विद्यालय ने अपनी स्थापना के बाद से ही देश में हरित क्रांति लाने के साथ शोध के क्षेत्र में कई उल्लेखनीय कार्य किए। देश में कृषि पैदावार बढ़ाने के लिए विश्विद्यालय ने अब तक अनाज की 2१५ से अधिक प्रजातियां विकसित की हैं। विश्वविद्यालय में वर्तमान में 26२ शोध परियोजनाओं पर कार्य चल रहा है। विश्वविद्यालय में स्थापित दर्जनों रिसर्च सेंटर किसानों को पोल्ट्री, डेयरी, फल, सब्जी व औषधीय पौधो तथा बीज उत्पादन के लिए समय-समय पर उन्नत किश्म के शोध करते रहते हैं। जिसे विश्वविद्यालय के 18 बाहरी परिसरों के माध्यम से किसानों तक पहुंचाया जा रहा।   वर्तमान में विश्वविद्यालय में 10 कालेज चल रहे हैं। इन कालेजों में स्थित 7२ विभागों में 135 पाठ्यक्रमों में विद्यार्थियों को शिक्षा दी जा रही है। विश्वविद्यालय ने वैश्विक प्रतिस्पर्धा को ध्यान मंे रखते हुए इंटरनेशलन स्कूल आफ एग्रीकल्चर की स्थापना की है। इस इंटरनेशनल कालेज में वर्तमान में मालदीव देश के विद्यार्थियों को उच्चतकनीक कृषि पर आधारित डिप्लोमा पाठ्यक्रम शुरु किया है। इसके साथ ही विश्वविद्यालय ने शिक्षा के आधुनिकीकरण व वैश्विक प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया व हंगरी के शिक्षण संस्थानों से विद्यार्थियों व संकाय सदस्यों के आदान-प्रदान के लिए करार किया है। पंतनगर विश्विद्यालय में लगे किसान मेले में भी काफी संख्या में छात्र इंटरनेशनल स्कूल आफ एग्रीकल्चर के पाठ्यक्रमों के बारे में जानकारी प्राप्त कर रहे हैं। साथ ही विश्वविद्यालय की वेबसाइट के माध्यम से भी विदेशी छात्र इंटरनेशनल कालेज के बारे में जानकारी प्राप्त कर रहे हैं। 

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विश्विद्यालय को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिलेगीरूप्रो.बिष्ट

रुद्रपुर। पंतनगर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बीएस बिष्ट बताते हैं कि यह विश्वविद्यालय एशिया के प्रमुख विश्वविद्यालयों में एक है। ऐसे में विश्वविद्यालय प्रबंधन की जिम्मेदारी है कि व वैश्यिक प्रतिस्पर्धा के लिए भी तैयार रहे। इसी को ध्यान में रखते हुए विश्वविद्यालय ने इंटरनेशनल कालेज आफ एग्रीकल्चर की शुरुआत कर दी है। पहले चरण में मालदीव के विद्यार्थी कालेज में डिप्लोमा प्राप्त कर रहे हैं। इस कालेज को अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के मुताबिक समृद्ध बनाया जाएगा ताकि भविष्य में इस कालेज में काफी संख्या में विदेशी छात्र आकर्षित हो सकें। जिससे विवि  को अर्न्राष्ट्रीय स्तर में पहचान मिलेगी। उन्होंने बताया कि आने वाले दिनों में विवि को प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रुप में विकसित किया जाएगा।

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देशभर से पंतनगर पहुंच रहे हैं किसान

रुद्रपुर। जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में लगे किसान मेले में देशभर के विभिन्न हिस्सों से कास्तकार पहुंच रहे हैं। मेले में पहुंचकर किसान राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कृषि के क्षेत्र में हो रहे शोध कार्यों की जानकारी प्राप्त कर रहे हैं। विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बीएस बिष्ट ने बताया कि मेले के माध्यम से किसानों को कृषि विकास की नविनतम तकनीकी जानकारी भी दी जा रही है। साथ कृषि वैज्ञानिकों की मदद से तैयार किए गए फार्मों का प्रदर्शन भी कराया जा रहा है। उन्होंने बताया कि मेले में प्रतिदिन सात हजार से अधिक किसान पहुंच रहे हैं। मेले में पहुंचने वाले किसानों में बिहार, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश के लोगों की संख्या ज्यादा है।


Wednesday, October 6, 2010

इतिहास बन गया नैनीताल का ऐतिहासिक कलेक्ट्रेट

                                          धूं-धूं कर जलते कलेक्ट्रेट को नहीं बचा सका प्रशासन

                                          अंग्रेजों  के जमाने के दस्तावेज भी जलकर राख हुए
                                                              (जहांगीर राजू, रुद्रपुर से)




नैनीताल का ऐतिहासिक कलेक्ट्रेट अब इतिहास बन गया है. जिला प्रशासन की नाकामियों के चलते धूं-धूं कर जलते कलेक्ट्रेट की हैरिटेज बिल्डिंग को कोई नहीं बचा सका. चार घन्टे के अन्तराल पूरा कलेक्ट्रेट परिसर जल कर राख हो गया. स्थिति यह रही कि लकड़ी से बने परिसर को बचाने के लिये मौके पर एक भी फायर हाइड्रेन्ट नहीं पाया गया. जिसके चलते पूरा प्रशासन लाचार होकर इस ऐतिहासिक भवन को जलते हुए देखता रहा.काबिले गौर है कि नैनीताल के ऐतिहासिक कलेक्ट्रेट का निर्माण अंग्रेजों के शासनकाल में 1898 में हुआ था. यह इस भवन का निर्माण यूरोपीय स्थापत्यकला की गौथिक शैली में किया गया था. अंग्रेजों के जमाने से ही इस परिसर को 12 अनुभागों में बांटा गया था. यहां मौजूद आंग्लकक्ष विदेशी सैलानियों व शोधार्थियों के लिये काफी उपयोगी माना जाता था.
 इस कक्ष में मौजूद सारे ऐतिहासिक दस्तावेज भी जल कर राख हो गये हैं. 1891 में नैनीताल जिले के अस्तित्व में आने के आठ साल बाद कलेक्ट्रेट भवन का निर्माण कार्य पूरा हुआ था. जिसके बाद से ही इस हैरिटेज भवन में अंग्रेज प्रशासकों के साथ ही आजादी के बाद सत्ता के कई ऊतार चढाव देखे. अपने 112  साल की उम्र में भी यह इमारत चट्टान की तरह मजबूत नजर आती थी. यह हैरिटेज  भवन अपनी स्थापत्यकला के चलते बड़ी-बड़ी इमारतों की सुन्दरता को पीछे छोड़ देती थी. उल्लेखनीय स्थापत्यकला के चलते ही नैनीताल के कलेक्ट्रेट को राज्य के प्रमुख हैरिटेज भवनों में शामिल किया गया था.मंगलवार की सुबह बिल्डिंग के एक हिस्से में अचानक आग लगना शुरू हुई. चार घन्टे के अन्तराल में पूरा कलेक्ट्रेट परिसर राख के ढेर में बदल गया. इस दौरान पूरा प्रशासन हैरिटेज भवन को धूं-धूं कर जलते देखता रहा.

सभी फोटो - आलोक साह
बताते चलें कि हैरिटेज भवन में स्थापित कलेक्ट्रेट परिसर की सुरक्षा पर प्रशासन ने कभी भी ध्यान नहीं दिया. प्रशासन ने कभी यह भी नहीं सोचा कि लकड़ी की बनी इस इमारत में कभी आग लग जाये तो इसे कैसे बचाया जायेगा. लापरवाही का आलम यह रहा कि पूरे कलेक्ट्रेट परिसर में एक भी फायर हाइड्रेन्ट नहीं पाया गया. जिसके चलते कलेक्ट्रेट के एक दफ्तर में लगी आग ने इतना विकराल रूप ले लिया कि देखते ही देखते पूरा कलेक्ट्रेट आग की ढेर में तब्दील हो गया और प्रशासन बड़ी लाचारी से इस तमाशे को देखता रहा. क्षेत्र के बुजुर्ग बताते हैं कि इस घटना ने पुराने नैनीताल क्लब में लगी आग की घटना को ताजा कर दिया. उस दौरान भी तत्कालीन प्रशासन आन्दोलनकारियों द्वारा लगाई गई आग को बुझाने में नाकाम साबित हुआ था, जिसके चलते नैनीताल ने एक हैरिटेज भवन को खो दिया था. लेकिन आज प्रशासन की लापरवाही के चलते जलकर राख हुए एक और हैरिटेज भवन की घटना से पूरे नैनीताल के साथ ही इससे मजुड़े लोग गमज़दा हैं. इस ऐतिहासिक भवन के इतिहास बन जाने का हर किसी को गम है.

Tuesday, October 5, 2010

आखिर कौन भरेगा उत्तराखण्ड के आपदा पीड़ितों के घाव ?

अल्मोड़ा के आपदा प्रभावित इलाकों की आंखों-देखी
हेम पन्त, रुद्रपुर से


फोटो- कल्याण मनकोटी

हर साल की तरह इस साल भी उत्तराखण्ड के पर्वतीय और मैदानी इलाकों में भारी बारिश के कारण जान-माल का भारी नुकसान हुआ. 18 अगस्त को सुमगढ, जिला बागेश्वर में 18 बच्चों की स्कूल बिल्डिंग में दबने से हुई मौत की खबर ने पूरे राज्य को भारी सदमा पहुंचा, इससे उबरने से पहले ही ठीक एक महीने बाद 18 सितम्बर को अल्मोड़ा जिला मुख्यालय और उसके आसपास के इलाकों के साथ ही नैनीताल जिले के कुछ हिस्सों में बारिश भारी तबाही लेकर आयी. पिथौरागढ में मुनस्यारी तहसील का पूरा क्वीरीजीमिया गांव भूस्खलन के बाद खाली करना पड़ा.  गढवाल मण्डल में हालांकि मानव जीवन का नुकसान अपेक्षाकृत कम हुआ लेकिन सम्पत्तियों का नुकसान भारी मात्रा में हुआ.  इस बार की आपदा एक जगह पर केन्द्रित न होकर बड़े-छोटे रूप में सब जगह फैली हुई दिख रही है. भारी बारिश से सड़क परिवहन ऐसा ध्वस्त हुआ कि मुख्य सड़कों को खुलने में भी  2-3 महीने का समय लगने का अनुमान है.
अपने समाज में दुखी व्यक्ति की मदद करना और परिचित की खुशी को अपनी खुशी समझना हमारी मूल संस्कृति रही है. इस दैवीय आपदा के समय भी आपदा प्रभावितों की सहायता के लिये हर तरफ से हाथ उठ रहे हैं. लेकिन आपदा प्रभावितों को मुआवजा देने की सरकार की नीति पर कई सवाल उठाये जा रहे हैं. सरकार द्वारा अनुमोदित धनराशि आपदा प्रभावितों को राहत पहुंचाने के लिये नाकाफी साबित हो रही है. सरकार द्वारा चलायी जा रही आपदा राहत का एक दुखद पहलू यह है कि सरकार उन्हीं लोगों की सहायता के प्रति अधिक गम्भीर है जिनके परिवार में मानव जीवन की क्षति हुई है. अधिकांश परिवार ऐसे हैं जिनके घरों को दिन में नुकसान हुआ, जिससे इनकी और परिवार की जान तो बच गयी लेकिन घर, मवेशी, अनाज, बर्तन, कपड़े और अन्य सम्पत्ति पूर्ण रूप से मलवे में दब गयी या क्षतिग्रस्त हो गयी. ऐसे परिवारों के प्रति सरकार संवेदनशील नजर नहीं आ रही है. पिछले सप्ताहान्त में अल्मोड़ा और उसके आसपास आपदा से प्रभावित क्षेत्रों में जाकर देखने पर यह बात समझ में आयी कि सरकार ने लगभग 2 हफ्ते बाद भी ऐसे परिवारों को नजरअन्दाज किया हुआ है. क्षतिग्रस्त घर के अन्दर सभी आवश्यक सामग्री दब चुकी है और दुधारू जानवर भी खत्म हो गये हैं. अल्मोड़ा से 40 किमी दूर जूड़-कफून गांव के शेर राम ने बताया कि आपदा आने के बाद उन्हें तीन दिन तक खाना नसीब नहीं हुआ. शेर राम की बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे राज्य का आपदा प्रबन्धन कितना चुस्त-दुरुस्त है. प्रशासन ने इन गांवों के साथ-साथ कस्बों की स्थिति भी खराब है. अल्मोड़ा शहर के कई मोहल्ले भूस्खलन की चपेट में आये हैं. डिग्री कालेज के पास इन्दिरा कालोनी के कई घर अब रहने लायक नहीं रह गये हैं.

इस समय जब प्रशासन के आला अफसरों को आपदा पीड़ितों को राहत पहुंचाने में जुटना चाहिये, वो विशिष्ट लोगों के दौरों  की व्यवस्था करने में जुटे हुए हैं. पहाड़ को भुला चुके पहाड़ी मूल के कई नेता भी इस बार आपदा प्रभावितों से मिलने पहुंच रहे हैं, लेकिन इनके दौरों से विपदाग्रस्त लोगों की समस्याओं का स्थायी समाधान होगा या ये दौरे सिर्फ खानापूर्ति में सिमट जायेंगे, यह भविष्य में देखा जायेगा. 
आपदा के आधे महीने बाद भी पुनर्वास और भविष्य में ऐसी घटनाओं से बचने की योजनाओं के बारे में काम शुरू नहीं हो पाया है. अब जब बारिश का कहर थम चुका है और सरकार को केन्द्र से आपदा राहत के लिये धन भी आबन्टित हो चुका है, इस समय भी पहाड़ में कुछ ऐसे लोग सरकार की नजरों में आने से बच गये हैं, जिनका सर्वस्व प्रकृति के इस कोप ने खाक कर दिया है.
उत्तराखण्ड के सभी लोगों के मन में यह आशंका है कि केन्द्र से मिली धनराशि का सदुपयोग हो भी पायेगा या नहीं. अल्मोड़ा के लोगों का मानना है कि सरकार बारिश से आयी विपदा को भी वैसे ही भूल जायेगी जैसे वो गरमी खत्म होते ही पेयजल की समस्या को भूल जाती है.

आपदा प्रभावित क्षेत्र का दौरा करने के बाद हमें यह महसूस हो रहा है कि इन आपदा प्रभावित लोगों की सहायता के लिये उत्तराखण्ड के सभी प्रवासियों और निवासियों को आगे आना चाहिये और उन्हें इस बात का अहसास कराना चाहिये कि सभी लोग उनके साथ है. सरकार की दिशा और नीति देखकर तो यही लग रहा है कि उत्तराखण्ड और आपदाओं का साथ बहुत लम्बा रहेगा. भगवान न करे अगला नम्बर हमारा या किसी परिचित का होगा तो तब ये ही लोग हमारी मदद करेंगे जिनकी मदद हम अभी कर रहे हैं. सरकार और अफसर तो शायद तब भी विशिष्ट लोगों के दौरों को सुगम बनाने में व्यस्त होंगे.

Sunday, October 3, 2010

गुड रैनबो से शुरू होता है पर्यावरण संरक्षण का सफर

पिछले 15 सालों से बगैर सरकारी मदद से कार्य कर रहे रैनबों से जुड़ने वाले हजारों लोगों में कई विदेशी भी शामिल है 
चंदन बंगारी
रामनगर

सरकार वन्यजीवों व पर्यावरण को बचाने के लिए कार्यक्रम आयोजित करती है। मगर सरकारी प्रयासों से अलग कुछ ऐसे लोग भी है जो बगैर सरकारी इमदाद के निःस्वार्थ भाव से सालभर पर्यावरण संरक्षण अभियान में जुटे रहते है। नगर के दो युवा स्कूली बच्चों को बर्ड वाचिंग के जरिए पर्यावरण संरक्षण का संदेश देने में जुटे हुए है। आज क्षेत्र में ऐसा कोई भी पर्यावरण व वन्यजीव बचाने के लिए आयोजित कार्यक्रम या रैली नही होती, जिसमें रैनबों की भागीदारी नही होती है। स्कूली बच्चों के जुबान में गुड रैनबो शब्द होना ही संस्था के लोगों का असल पुरस्कार है।  
कार्बेट नेशनल पार्क में करीब 600 पक्षियों की प्रजातियां पाई जाती है। इन्हीं पक्षियों के सहारे नगर में रहने वाले एक युवा राजेश भटट ने पर्यावरण सरंक्षण का कार्य करना शुरू किया। उन्होंने 1 अक्टूबर 1995 को पर्यावरण के इंद्रधनुषीय मित्रों का समूह रैनबो फैं्रडस आफ नेचर एंड इन्वायरमेंट संस्था की स्थापना की। स्थापना के समय स्कूली विद्यार्थियों को शामिल करने के साथ ही संस्था को गैर राजनैतिक, गैर सरकारी व गैर पंजीकृत संस्था बनाने का निर्णय लिया गया था। इसके गठन का मकसद प्रकृति, पर्यावरण व संस्कृति की सुरक्षा के लिए जनजागरूकता बढ़ाने के लिए कार्यक्रम संचालित करना है। जिससे जन सामान्य में भी पर्यावरण संरक्षण के प्रति दिलचस्पी जागृत हो सके। अपने गठन के बाद से ही संस्था ने पर्यावरण संरक्षण के लिए जनजागरूकता रैली, स्लाइड शो, चलचित्र, नुक्कड़ नाटक, वृक्षारोपण, स्वच्छता अभियानों के साथ ही वन्यजीव लेखन, चित्रकला प्रतियोगिता का आयोजन भी करते हुए आ रही है। पॉलीथीन उन्मूलन, कोसी नदी में साफ सफाई व बीमारियों के प्रति जागरूकता अभियानों में भी रैनबों हमेशा आगे ही रहा है।
1997 से एक और उत्साही नौजवान बची सिंह बिष्ट के संस्था से जुड़ने के बाद कार्यक्रमों में तेजी आना शुरू हो गई। संगठन में जुड़ने वाले अधिकांश स्कूली बच्चे होते है। जब भी वे आपस में मिलते हैं तो गुड रैनबो व विदाई लेते समय वाई रैनबो का अभिवादन करते है। संस्था वर्ष में 48 पर्यावरणीय सांस्कृतिक त्यौहार मनाती है। जिसमें विश्व पर्यावरण दिवस, पृथ्वी दिवस, पक्षी, जल, ओजोन, वन्यजीव सुरक्षा सप्ताह सहित अनेक शामिल है। संस्था स्कूली बच्चों को पर्यावरण, जंगल, पक्षियों, जंगली जानवरों से रूबरू कराने के लिए सालभर भ्रमण कार्यक्रम आयोजित करती है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण अक्टूबर के पहले सप्ताह होने वाला वन्यप्राणी सप्ताह शामिल है। पूरे सप्ताह प्रदेश के अनेक हिस्सों में संस्था कार्यक्रम संचालित करती है। अपने घोष्णापत्र के अनुरूप संस्था ने पिछले 15 सालों में किसी भी प्रकार के आयोजन के लिए कोई चंदा या आर्थिक सहायता सरकारी, अर्द्वसरकारी संस्थाओं व व्यक्तियों से नही लिया है। राजेश, बची व अन्य क्रियाशील साथी अपनी कमाई का एक हिस्सा संस्था द्वारा आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों में खर्च करते है। संस्था के संचालन को छोटा सा कार्यालय यूं मानिए छोटी-छोटी सड़कें व गलियारों को ही यह लोग अपना कार्यालय समझते है। संस्था ने पर्यावरण व वन्यजीवों पर आधारित एक छोटे से पुस्तकालय की स्थापना की है। संस्था के वर्तमान में एक हजार से अधिक प्रमाणिक सदस्य है। जिनमें देश के विभिन्न हिस्सों के अलावा विदेशी सदस्य भी शामिल है। पर्यावरण संरक्षण की मुहिम को प्रख्यात पर्यावरणविद सुंदर लाल बहुगुणा, मैती आंदोलन के सूत्रधार कल्याण रावत जैसे लोग ने भी सराहा है। संस्था का अभियान पूरी तरह से अनौपचारिक है। जो भी संस्था के उददेश्यों व कार्यशैली से इत्तेफाक रखते हुए इस क्षेत्र मे कार्य करना चाहता है, वह संस्था का सदस्य होता है।
बीते साल 8 अक्टूबर को संस्था के सदस्यों ने चार विदेशियों के साथ पर्यावरण का संदेश देते हुए पूरे उत्तराखंड में करीब 1400 किलोमीटर लंबी बाइक रैली निकाली थी। संस्था ने वर्ष 2009 में पर्यटन गतिविधियों के संचालन एवं सुविधाओं का कार्य भी शुरू कर दिया है। संस्था के संस्थापक राजेश का कहना है कि पर्यटन गतिविधियों से पर्यावरण व संस्कृति की सुरक्षा का संदेश पहुंचेगा वहीं इससे मिलने वाले लाभांस से प्रकृति, पर्यावरण व संस्कृति की सुरक्षा के लिए खर्च किया जाएगा। उनका कहना है कि उनकी मेहनत का पुरस्कार दूर गलियारों से सदस्यों की जोर से गुड रैनबो की आवाज सुनना है। संस्था के साथ जुड़कर नई पीढ़ी में प्रकृति व वन्यजीवों के प्रति खास नजरिया पैदा होता है। वहीं बची बिष्ट कहते है कि पर्यावरण को बचाने के चुनौती आज सबसे सामने है। रेनबो के माध्यम से बच्चों को पर्यावरण के साथ ही पशु पक्षियों के बारे में बताया जाता है। यह बताया जाता है कि इनका मानव जीवन में कितना महत्वपूर्ण स्थान है। कागजी कार्रवाई के इतर धरातल पर कार्य करने वाली संस्था से सरकार द्वारा संचालित लाखों संस्थाओं के लिए प्रेरणाश्रोत बन सकती है।