Thursday, December 8, 2011

बुजुर्गों के पदचाप सुनाई देते हैं अभी भी इन रास्तों में......


गढ़वाल से कुमाउं यात्रा
  केशव भट्ट


घेस गांव

जब सड़कें नहीं थी... विकास के नाम का ताना-बना बुना नहीं गया था.... यात्राऐं व दूरीयां पैदल नापी जाती थी। इन यात्राओं को समय नहीं बांधता था। लोग ठहरने के बाद अपनी यात्राओं के किस्से सुनाया करते थे। सुनने वाले बड़े ही धैर्य से उनके किस्सों को भावी पीढ़ियों के लिए कागजों में उकेरते चले जाते थे। रास्ते तो अभी भी अपनी जगह पसरे हजारों कहानियां कहते प्रतीत होते हैं। इतिहास बन गए इन रास्तों पे कभी-कभार किसी के चलने का सुकून पथिक के साथ ही रास्तों को भी सायद मिलता ही होगा। गढ़वाल व कुमांउ के हिमालय की तलहटी में पसरे बुग्याल अपने साथ कई सभ्यताओं को भी जोड़े हुवे हैं। ट्ैकिंग के बहाने मैं अपने साथियों के साथ इन सबसे रूबरू होते आया हूं। सड़क से दूर पसरे इन गांवों में अभी शति पसरी मिलती है। गढ़वाल व कुमांऊ को जोड़ने वाले पारम्परिक हिमालयी रास्तों से आना-जाना तो अब गये जमाने की बात सी हो गई है। कभी कभार किसी बुजुर्ग का जाना भी होता था तो, मशनों ने हिमालय की जड़ें खोद जीपों का रास्ता बना उनकी इन पौराणिक व साहसिक यात्राओं पर विराम सा लगा दिया है।        गढ़वाल व कुमांउ के हिमालयी जन-जीवन की कश्टप्रद जिंदगीं के बारे में सुना था कई बुजुर्गों से। मन में कहीं एक लालसा भी थी इन क्षेत्रों में रचे-बसे घाटियों की खूबसूरती को देखने की। इस बीच सीएस नपलच्याल बागेष्वर के नए जिलाधिकारी बने। नपलच्यालजी मुख्यतः व्यास घाटी के नपलच्यू गांव के हैं,

दुलाम बुग्याल
व्यास, दारमा व जोहार घाटियों के वाषिंदे अधिकतर खुषमिजाज किस्म के ही मिलते हैं। इन घाटियों से निकले कई जाबांजों ने एवरेस्ट सहित कई दुर्गम पर्वतों का माथा चूमा है। जोहार का मिलम, दारमा का गो व व्यास का कुट्टी गांव तक पहुंचने के लिए प्रकृति हर तरह से परीक्षा लेती है। तिब्बत से सटे इन घाटियों की बीहड़ता ने ही सायद इन्हें जूझारू बनाया होगा। व्यास घाटी की बातचीत में नपलच्यालजी ने अभी तक के अपने टै्कों की लिस्ट ही खोल दी...... ‘‘जब चमोली में था तो ताल, उत्तरकाषी में द्यारा बुग्याल, दारमा का दातू गांव.......। अभी एक पुराना रास्ता भी तो है जो गढ़वाल के देवाल से कुमाउं में कहीं मिलता है....। घेस में कहीं मेरे एक मित्र हैं रिटायर्ड कैप्टन बिस्टजी। उन्होंने एक हर्बल गार्डन भी बनाया है सायद। देहरादून कभी वो मिले थे तो उन्होंने बताया था। बहुत खुबसूरत रास्ता है वहां से कुमाउं के लिए....... वो बता रहे थे। यदि संभव हो तो पता करो हम भी हो आते हैं उस पुराने रास्ते से।’’ नपलच्यालजी कई देर तक बोलते-बताते खो से गए अपनी पुरानी यादों में। उनसे बात करने पर, हिमालय व उसके जनजीवन को जानने व समझने की उनकी लालसा के पीछे एक प्रषासक कम बल्कि एक आम आदमी का बीता व झेला दर्द मुझे ज्यादा दिखा। बहरहाल् मैंने इस पौराणिक रास्ते को होली में टै्किंग के लिए चुन ही लिया। डीएम साहब को ये कह कर मनाया कि पहले हम इस रास्ते की रैकी करके देख आते हैं आप फिर बाद में रूबरू होना इस ट्ैक बावत्।     

बर्फीला रास्ता
  इस बार मेरे साथी बने जीवट व हरफनमौला दरबान सिंह। इस यात्रा में भीड़ कम ही रखने का इरादा था। यात्रा में बुजुर्गों के पदचापों को सुनने का एक सपना पाला था। और वो सपना खामोष, प्रकृति के साथ आत्मसात होकर ही पूरा हो सकता था। इस ट्ैक के बारे में जब जानकारी जुटाने लगे तो ताज्जुब हुआ कि इस बारे में सभी आधे-अधूरी ही जानकारी रखते हैं। हमारे माउंटेनियर साथी सुमित गोयल ने जरूर एक कंटूर मैप के साथ ही टैंट भेज थोड़ी सुविधा कर दी। देवाल में अपने साथी हेम मिश्रा से इस बावत् जानकारी जुटाने के लिए मिन्नतें भी की। लेकिन अंत में एक नक्षा व आधा-अधूरी जानकारी ही जुट पाई। इस बीच कौसानी से मानवेष जोषी को भी यात्रा में जगह दे दी गई। इस यात्रा के लिए कम से कम लेकिन जरूरी सामान जुटा हम चतुर्दषी की सुबह प्रदीप की जीप में देवाल को निकल पड़े। ये एक ऐसी यात्रा थी जिसके बावत् कोई भी कुछ भी नहीं जानता था। देवाल में हेम मिश्राजी को फोन किया तो थोड़ी देर में वो सकुचाते हुवे से आते दिखे। कुर्ता-पायजामा उनका पानी में थोड़ा भीगा सा दिखा तो षर्माते हुवे बोले कि गली में से आ रहा था तो उप्पर से रिष्ते की षाली ने होली है कह कर पानी डाल दिया। हमें जल्दी थी। रास्ते बावत् पूछा तो उन्होंने बताया कि जजमानी की वजह से उन्हें गांवों में सभी जजमान जानते हैं। वो मदद कर देंगें। वो सड़क मार्ग ही बता सके, पैदल के बावत् उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। घेस का रास्ता पूछ हम देवाल को पीछे छोड़ चले। देवाल से घेस व हिमनी के लिए प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत् सड़क बन रही है। ठेकेदार जेसीबी मषीनों से पहाड़ों को काट-काट कर सड़क बनाने में जुटे पड़े हैं। अभी इस सड़क में चलने के लिए विभाग ने परमिषन दी नहीं है लेकिन बेरोजगारी की मार के चलते कुछ युवाओं ने इस मार्ग में जीपें दौड़ानी षुरू कर दी हैं। गांव के बुजुर्ग भी खुष हैं। इस नई बन रही सड़क में हिचकोले खाती जीप में बैठने के जोखिम में उन्हें डर नहीं लगता। पोपली हंसी में कहते हैं कि, ‘देवाल बाजार आने-जाने में तीन-चार दिन तो लग ही जाते थे पहले...... अब इन छोरों की घोड़ा गाड़ी में तो सुबह जाओ और साम को घर आ जाओ।’
     घटगाड़ के किनारे से होते हुए करीब 15 किमी चलने के बाद प्रदीप ने ब्रैक लगा पूछा कि किधर को जाना है। बाहर निकले तो आगे दो रास्तों के किनारे प्रधानमंत्री सड़क परियोजना का एक बड़ा सा बोर्ड दिखा। इसके मुताबिक मार्च 2007 से इस सड़क का निर्माण भारत भूमि विल्डर के द्वारा किया जा रहा है। कुंडर बैंड से घेस की दूरी 25.66 किमी। दूर तक कोई भी हमें जानकारी देने वाला नहीं मिला तो फिर चल पड़े घेस की ओर। आगे कई जगहों पर सड़क काफी खतरनाक व चढ़ाई वाली थी। प्रदीप को बस एक ही डर सता रहा था कि वापसी में यदि कोई परेषानी आई तो वो अकेले क्या करेगा। 

  
एक घंटे के बाद एक बेतरतीब मोड़ पर तीन जीपें खड़ी थी। दूसरी ओर पर एक गोठ में दुकान दिखी। जीप रोक ली। आगे होल्यारों का एक झुंड भी होली गाते दिखा। युवा दुकानवाले राजू से मालूम हुआ कि ये घेस है। बिश्टजी के बावत् जानना चाहा तो पता लगा कि उनका इलाका हम तीन किमी पीछे छोड़ आए थे। अपने रास्ते के बावत् हमने जानने की कोषिश की तो जो जानकारी तीन-चार लोगों ने हमें दी वो खिचड़ीनुमा निकली। सड़क का काम आगे हिमनी गांव को जारी था। प्रदीप को कुछ आगे तक छोड़ने की मिन्नत की तो उसने होल्यारों के झुंड की ओर बेबसी से नजर डाली। हम दुकान वाले की षरण में फिर से गए और उसे अपनी यात्रा का महत्व भी बताया कि हम इस क्षेत्र की पूरी जानकारी बागेष्वर के डीएम साहब को देंगे। इस क्षेत्र की यात्रा वो करना चाहते हैं। युवा दुकानदार राजू ने लंबी हांक लगाई। एक अनवाल नुमा लड़का दौड़ कर आया। उसने बताया कि वो उप्पर बुग्यालों में कई बार भेड़ बकरियों के साथ जाते रहता है। बमुष्किल हम उससे ये ही जान सके कि दुलाम बुग्याल से आगे थोड़ा खतरनाक सा रास्ता कुमाउं को जाता है। होल्यारों का झुंड प्रदीप से होली की दक्षिणा के लिए इंतजार कर रहा था। कुछ दक्षिणा दे हम आगे हिमनी की ओर बढ़ चले। दो किमी के बाद सामने की पहाड़ी मंे एक जेसीबी पहाड़ काटते दिखी। आगे परेषानी जान हमने अपना साजो-सामान ले, प्रदीप को वापस लौटा दिया। करीब किलोमीटर भर चलने के बाद सड़क खत्म हो गई। उप्पर को एक पतले से रास्ते से हिमनी गांव को लक्ष्य किया। नीचे जेसीबी की गर्जना सुनाई दे रही थी। पेट के खातिर जेसीबी चालक इस दुर्गम पहाड़ को काट सड़क बनाने में जुटा पड़ा था। हिमनी गांव की सीमा षुरू हो गई थी। सामने से अपने खच्चरों के साथ मस्त सा एक युवक आते दिखा तो उसे ही रोक हिमनी गांव की पूछताछ षुरू कर दी। हिमनी गांव का ही हरीष दानू था वो। उससे पता लगा कि घेस में 150 व हिमनी में 80 मवासे करीब हैं। हिमनी में जूनियर हाईस्कूल के बाद आगे की पढ़ाई के लिए घेस व देवाल की षरण लेते हैं। लक्षम सिंह प्रधानपति के वहां लगे फोन नं. 01363214219 पर ही बाहर की कुषल-क्षेम मालूम होती है। हरीष से विदा ले हम आगे बढ़े। हिमनी गांव नीचे को काफी विस्तार लिए हुवे है। गांव में जाने की लालसा को त्यागना पड़ा।      सामने बुग्यालों में आग लगने से धुंवे के बादल उठते दिख रहे थे। ये आग षिकारियों ने लगाई थी। इन जगहों में माफियानुमे षिकारियों का राज होता है। खेतों के बीच में बने रास्ते से दुलाम बुग्याल की ओर निकल पड़े। ग्रामीणों के मुताबिक दुलाम चार किमी की दूरी पर है। धूप में तेजी थी। खेतों के पार जंगल के झुरमुट में जाते ही गर्मी से निजात मिली। कुछ देर चलने पर सामने साठ डिग्री की ढलान लिए दुलाम बुग्याल बर्फ से लदकद दिखा। नीचे कुछ खरक दिखीं। सूर्यास्त होने में वक्त देख दुलाम के षीर्श में ही रूकने का इरादा किया। पावडर बन चुकी बर्फ में चढ़ाई में गिरते-पड़ते धार में पहुंचे तो सूर्यास्त काफी सुंदर लगा। दूर घेस गांव दिख रहा था। टैंट लगा, खाने की जुगुत कर सो गए। सुबह सामान समेट आगे की अनजान राह में जाने के लिए सामने देखा तो बुरांष के झुरमुटों में दो रास्ते दिखे। एक उप्पर को दूसरा नीचे को जाता हुवा। नीचे का रास्ता कुछ ज्यादा चला दिखने पर उसमें ही चल दिए। ज्यादा दूर नहीं चले थे कि रास्ते ने दम तोड़ दिया। आगे गहरी खाई थी। वापस मुड़ दूसरे रास्ते को पकड़ा। बुरांष रास्ते के नीचे को आ गए। उप्पर को बुग्याली घास दिखने लगी। हम धीरे-धीरे उंचाई की ओर बढ़ रहे थे। अब पहाढ़ की ढ़लान तीखी होने लगी थी। रास्ते से ढ़लान का नीचे को अंत कई किलोमीटरों तक का होगा। हम सभी सावधानी से चल रहे थे। उप्पर चील मडराती दिखी। एक पल को ख्याल आया कि कहीं ये इंतजार तो नहीं कर रही है कि क्या मालूम कोई इस तीखे ढ़लान में गिरे तो कुछ दिनों का भोजन का इंतजाम हो जाए ! सचमुच इस ढ़लान में यदि कोई गिरता तो उसके पास पहुंचना काफी मुष्किल होता। और यदि पहुंच भी जाते तो उसे बचाकर रास्ते में ला पाना सायद संभव कम ही पाता। इस तरह के रास्तों के लिए तो ग्रामीणों का कहना होता है कि, ‘‘साहब ! बस दो-चार बुरांष के फूल-पत्ते तोड़ नीचे को चढ़ा कर माफी मांग लेनी हुवी।’’
 मार्तोली बुग्याल
 कुछ दिन पहले गिरी बर्फ में ढक चुके रास्ते का अनुमान सावधानी से लगाना पड़ रहा था। कई बार रास्ते को छोड़ना पड़ा। हमारे साथी दरबान, हाथ में बड़ी लकड़ी की लाठी पकड़े आगे सावधानी से एक-एक कदम रख रास्ता खोलने में जुटे पड़े थे। होमकुनी बुग्याल को पार करने के बाद निरणीधार के पास पढ़ाव के अवषेश से दिखे तो वहां बिछे पाथरों में सभी पसर गए। षीर्श में होमकुनी बुग्याल फैला था। आसमान में टकटकी लगाई तो चील अब नहीं दिख रही थी। हमसे उसकी उम्मीद टूट गई थी। देर तक बुग्यालों को देखते रहे। आग लगने से बुग्यालों की घास जल गई थी। ये करामातें षिकारियों की ही रहती हैं। कस्तुरी हिरन, तंेदुवा, भालू, मोनाल आदि के षिकार के लिए ये बुग्यालों में आग लगा देते हैं। आग से भागते वन्य जीव इनकी गोलियों का षिकार हो जाते हैं। षिकारियों पर कहीं भी कोई लगाम वन विभाग आज तक भी नहीं लगा सका है। इन्हें बचाने वाले भी वन विभाग के ही कुछ कारिंदे होते हैं। साल में एक-आध बेचौलिये को कुछ तेंदुवे की खालों या यारसा गंबों के साथ पकड़ वन विभाग भी वर्शों से अपनी फाईल भरते आ रहा है। इनके वन कानून सीधी-साधी जनता के लिए ही होते हैं।
      आसमान में बादल का एक छोटा सा टुकड़ा देख कंधों मे रूकसैक को डाल लिया। हवा भी तीखेपन का एहसास करा रही थी। घंटे भर चलने के बाद एक जगह पर काफी सारे कलात्मक पत्थरों का जमघट ‘कैरोन’ का सा एहसास करा रहे थे। नक्षे में देख अनुमान लगाया कि इसे माणिक्य देवधार होना चाहिए। स्थानीय भाशा में इसे मिनसिंग नाम से भी बुलाते हैं। कुमाऊं व गढ़वाल की ये सीमा रेखा है। नीचे को तीव्र ढलान के बाद फैले मार्तोली बुग्याल में खरक बने दिख रहे थे। घंटे भर की मेहनत के बाद मार्तोली में पहुंचे। सूरज भी ढल रहा था। मार्तोली में पढ़ाव डालने का विचार आगे नया कुछ देखने की चाह में त्यागना पड़ा। पानी के छोटे-बड़े कुंडो के किनारे अभी बर्फ जमी थी। यहां से कई जगहों को रास्ते बिखरे थे। दूर पर्वतश्रंखलाओं में धाकुड़ी के पास का चिल्ठा बुग्याल दिखने पर उसी की दिषा में अनुमान लगा दाहिने को उतरते चले गए। मार्तोली बुग्याल के खत्म होते ही बुराषं का घना जंगल से सामना हो गया। अधखिले बुराषं सुंदर दिख रहे थे। रास्ते का कहीं ओर-छोर नहीं दिख रहा था। नक्षे के अनुसार हम तलबड़ा या भराकानी गांव की सीमा में कहीं भटक रहे थे। मन में आज गांव में रहने की कुलबुलाहट थी। घंटे भर की यात्रा के बाद बंजर खेतों में पहुंचे। जानवरों को हांकने की आवाज सुनाई पड़ी तो लगा कि पहुंच ही गए। बकरियों के झुरमुट को ठेलती बालिका को देख कुछ पूछने की सोची ही थी कि मॉं की आवाज सुनते ही वो भाग गई। नीचे पेड़ से चारे के लिए टहनियां काट रही उसकी मॉ से नजदीक के गांव के बारे में पूछा तो उसने नीचे को जाने को इषारा कर दिया। सायद हिमालय की गोद में रहने वाले इन मासूमों और हमारी भाशा में सही ढंग से तारतम्य नहीं बैठ पाया। कुछ कोत भी हुवी। रास्ते का कोई ठिकाना ना पा हम एक गधेरे के साथ ही उतरने लगे। कई जगहों में हम सभी को टार्जन भी बनना पड़ा। नीम अंधेरा होते-होते रास्ते के दीदार हो ही गए। हम रास्ते के बीचोंबीच में थे। तलबड़ा, भराकानी गांवों की सीमा से हम काफी नीचे आ गए थे।
      कुछ देर असमंझस की रही। नीचे कुंवारी गांव को ये सोच चलना षुरू किया कि रास्ते में कहीं भी टैंट लगा लेंगे। तीखे पहाढ़ के सीने को काट कर बनाया गया रास्ता बेहद संकरा व खतरनाक था। अंधेरे में दूर षंभू नदी के बहने की धीमी आवाज के साथ ही तेदुंवे की गुर्रराहट भी सुनाई पड़ रही थी। नौ बज गए थे। एक जगह पर दो पहाड़ियों का मिलन होने से वहां कुछ जगह ढलान लिए दिखी। कुंवारी अभी तीन किमी की दूरी पर था। ढलान में सुरक्षित ढंग से तंबू तानते के बाद सभी उसमें समा गए। एक सुरक्षा का सा एहसास मिला। नींद के आगोष में समाते ही तेदुंवे की गुर्रराहट भी गायब हो गई।
     सुबह मवेसियों के गले में बंधी घंटियों की टनटनाहाट नीचे घाटियों में फैले कोहरे में गूंज रही थी। दो परिवारों के मुख्या भरूवा बंदूक कंधे में डाले अपने कुनबे के साथ उन्हें हांक रहे थे। नजदीक आने पर अपनी यात्रा बावत् बता हमने उनकी जिज्ञासा षांत की। हमारे रात में यहां रूकने पर वो चिहुंके, ‘‘बब्बा य बिमदर धार मां तो बाघ रूनी। त्वैमि कसिक रैये यां। हिटो पे हिटो, हमल्ये मलि मार्तोली बुग्याल गोरू-बाछिनों कैं छोड़ ब्यालि तक ओंलू।’’
      पहाड़ के घेरे से बाहर निकल, कुंवारी गांव की सरहद में पहुंचे। तकली से ऊन कातते विजय राम मिले। उनसे बातचीत में मालूम हुवा कि ‘‘खुषाल सिंह दानू यहां 53 मवासों के प्रधान हैं। गांव में उपप्रधान केषर सिंह दानू के वहीं 08991325168 नं. का सैटेलाइट फोन लगा है। भेड़ का ऊन साल में दो कुंतल तक हो जाता है। जिसे कताई कर कंबल, कोट आदि बना काम में ले आते हैं। रू.15 किलो तक का ही बाजार भाव मिल पाता है। अब कातना कम ही कर दिया है सभी ने। गांव के बारे में बताते हुए बोले कि आधे-अधूरे नए बने जूनियर हाईस्कूल ही में बच्चे उधम मचाते हैं। हाईस्कूल का उच्चीकरण नेताओं के भाशणों तक ही सीमित रह गया है। प्राइमेरी स्कूल के तो दरवाजे बंद ही रहते हैं। जूनियर हाईस्कूल में मात्र परीक्षा संपन्न कराने को बागेष्वर से आने वाले मास्टर साहब ही प्राईमेरी की औपचारिकता भी निपटा जाते हैं। देवाल ही यहां की नजदीकी बाजार है। कुंवारी से झलिया, उपथर, चोटिंग, मानमति से खेता तक पैदल रास्ता है। वहां से मिलखेत, बोरगाड़ होते हुवे देवाल तक कच्ची सड़क है। ‘खेेता’ से जीप वाले रू.50 किराया लेते हैं। बागेष्वर दूर पड़ता है हमारे लिए। सिर्फ उत्तरायणी में ही जाना होता है उस ओर....।’’ विजयदा से खिचड़ी फिर दोबारा चखने के वादे पर हमने आगे की राह पकड़ी। मुख्य रास्ता टूटा था। टूटी सिचाई गूल को ही गांव वालों ने रास्ता बना दिया था। गांव का पंचायत घर भैंसों का आरामगाह बना दिखा। रास्ते में सीढ़ीनुमा खेतों में गोड़ाई करती बूढ़ी अम्मा की अपनी बहु के साथ फोटो खींचने की फरमाइष भी पूरी करनी पड़ी। नीचे बाखलीनुमा मकान में दलिप सिंह अपने पोते की अठखेलियों में मस्त थे। हमें देख हांक लगाई, ‘‘चा-पांणी पी जाओ हो।’’ उनकी बहू पानी ले आई। दलिप सिंह काफी लंबे अर्से से पेट की बीमार से ग्रस्त हैं। मंहगाई के जमाने में ईलाज के खर्चे से घबरा कर घर ही बैठे हैं। लड़का बाहर प्राईवेट नौकरी करता है। उनकी बहू जानकी, बधियाकोट में आषा कार्यकर्ती है। बीपीएल कार्ड होने के बावजूद भी योजनाओं व मिलने वाली सुविधाओं का उन्हें कुछ पता ही नहीं होने से हम चौंके। उन्हें योजनाओं के बावत् बता जल्द ईलाज कराने की सलाह दे हमने उनसे ‘चा’ फिर पीने का वादा कर विदा ली।

       षंभू नदी षांत सी बह रही थी। 2010 में आई बाढ़ ने इसमें बने पुल के पिल्लर ध्वस्थ कर दिए। इन्हें ठीक करने की कछुवा गति को देख लगता नहीं कि ये कभी ठीक हो पाएंगे। वैसे भी आपदा में ध्वस्थ सड़कों, पुलों, बिल्डिंगों आदि से ठेकेदारों को जो रोजगार मिलता है उससे वो ताउम्र अलग नहीं होना चाहते। यहां काम कर रहा नेपाली परिवार आज होली की मस्ती में चूर था। हमें देख वो ठिठक से गए। हमने उनके पत्थर से बने चुल्हे में थोड़ा पानी गर्म करने की इजाजत मांगी तो वे खुद ही चुल्हा जला पानी गर्म करने में लग गए। पानी गर्म हो चुका था। अपने नूडल्स के डिब्बों में गर्म पानी डाल हम उन्हें धन्यवाद दे जाने लगे तो सकुचाते से वो बोले, ‘भात-षिकार है, खा के जाओ साब्।’ हाथ हिलाते हुवे हम धीरे-धीरे विलाप गांव की चढ़ाई नापने लगे। थोड़ी चढ़ाई के बाद विलाप गांव आ गया। एक बाखली सी और दो अलग मकान दिखे। महिलाएं काम में जुटी पड़ी थी। धारे में प्यास बुझाने के बाद आगे बढ़ चले। किलोमीटर भर की चढ़ाई के बाद लमडर धार आया। किलपारा गांव को जा रहे इस रास्ते को देख एक बार को झुरझुरी सी हुई। रास्ता तिरछा व खतरनाक था। 80 डिग्री का किलोमीटर भर का ढ़लान लिए इस पहाड़ी में पेड़-पौंधों का नामोनिषान भी नहीं था। नीचे पिंडर नदी के किनारे किलपारा ग्राम सभा के ओगन व माणिक तोक भी सिमटे-सहमे से दिखे। दो किलोमीटर के बाद किलपारा गांव दिखा। गांव के मंदिर में होली की विदाई के साथ ही आलू, पूरी, हलवे का प्रसाद बंट रहा था। गलियों ने निकलते हुए हम गांव की सरहद को छूंकर बधियाकोट को बन रही धूल भरी सड़क में पहुंचे। पिंडर नदी पर बना पुराने पैदल पुल से देखा कि पिंडर आज खामोष सी बह रही है। इसका हरा पानी अपनी ओर खींच रहा था। आसमान में बादल घिरते देख नहाने की इच्छा छोड़नी पड़ी। पुल पार कच्ची सड़क के किनारे माईलस्टोन दिखा। तीख दो किमी। पीछे मुड़ कर देखा तो बदियाकोट चार किमी। तीख गांव को पार कर उनियां पहुंचे ही थे कि बारिष के साथ ही हल्की बर्फ पड़ने लगी। सड़क किनारे ही प्राईमरी स्कूल दिखा तो उसी की षरण में लपके। दरवाजे खुले थे। अंदर गए तो वहां भी बारिष आने पर उप्पर देखा तो कमरे की टिन की आधी छत गायब दिखी। बाहर आने पर स्कूल की हालत देख भौच्चका सा रह गए। किसी जबरदस्त तुफान ने स्कूल को तहस-नहस कर दिया था। टिन की छतें तुफान में  उखड़ने से मुड़ गई थी। पीछे से आया मलवा स्कूल के कमरों को तोड़ अंदर भरा था। हमें सौंग की याद हो आई। सौंग में 18 अगस्त 2009 को हुवे हादसे ने 18 मासूमों की जान ले ली थी। वहां भारी बारिष से पीछे की पहाड़ी से मलवा स्कूल के दो कमरों को तोड़ अंदर आ गया था। बहरहाल् हमें दूसरे दिन ग्रामीणों से पता लगा कि इस स्कूल को भी अगस्त 2009 की आपदा की मार पड़ी। सोराग की सभापति रूमली देवी विद्यालय के लिए जमीन देने को तैयार थी लेकिन ठेकेदार को उसमें अपना फायदा नहीं दिखा तो उसने अड़गां लगा दिया। नया स्कूल अब गांव के बड़े गधेरे के पार दूर बना है। बारिष में गधेरे में पानी आ जाने पर स्कूल में कोई नहीं जा पाता है। अब गांव वाले ठेकेदार को कोसने में लगे रहते हैं। लगभग 45 मवासों को अपने में समेटे उनियां गांव सोराग की ग्राम सभा है।      उनियां प्राथमिक विद्यालय के आगंन में ही जल्दी से टैंट लगाया ही था कि होली की मस्ती में कच्ची पीये, गजल सम्राट गुलाम अली का एक दिवाना आ टपका। वो ज्यादा गजलें नहीं सुना सका। बारिष ने उसे भागने पर मजबूर कर दिया। अंधेरा घिर चुका था। देर तक हो-हल्ले की आवाजें आती रही। सुबह बारिष थम चुकी थी। गांव धुला सा भला लग रहा था। टैंट व सामान पैक कर हमने आगे की राह पकड़ी।
  


होमकुनी बुग्याल के नीचे का बीहड़ रास्ता।
  कच्ची सड़क के साथ चलते हुवे विनायक धार पहुंचे। त्रिषूल, मृगथूनी, भानूटी आदि चोटियों का यहां से एक अलग ही नजारा देखने को मिला। विनायक धार में बचूली देवी का ढाबा है। 1983 की बाढ़ में कर्मी में उसका मकान बह गया था। उसके बाद विनायक धार में झोपड़ी बना उसने मजदूरों के साथ ही आने-जाने वालों के लिए नाष्ता-खाना बना अपनी गुजर बसर करनी जो षुरू की वो दिनचर्या उसकी अभी तक जारी है। बाढ़ से गांव में जो थोड़ी जमीन बच गई उसमें दुकान बना लड़का अपनी गृहस्थी चला रहा है। मैगी का नाष्ता कर पुराने पैदल रास्ते से नीचे कर्मी गांव की ओर चल पड़े। दूर कर्मी गांव के उप्पर कच्ची सर्पाकार सड़क में जीपों को रेंगते देख कदमों की रतार बढ़ाने का कोई फायदा नहीं रहा। सड़क में पहुचे तो देखा कि जीपों की छतों में भी लोग बैठे थे। पैदल ही सड़क नापनी षुरू की। घंटा भर चलने के बाद धूल उड़ाती यूटीलिटी वैन आई। खुली वैन में भेड़ों के ऊन से भरे बोरों में बैठने का सौभाग्य मिला। पेठी, चौढ़ास्थल, झंडीधार, लोहारखेत की कच्ची सड़क में हिचकोले लेती वैन के सौंग में सुरक्षित पहुंचने पर राहत की सांस ली। सौंग में भराड़ी के लिए जो जीप तैयार थी उसे देखकर लगा कि वो अपनी उम्र बहुत पहले पार कर चुकी होगी। लेकिन विकास की परिभाशा से कोसों दूर इन पहाड़ी क्षेत्रों में इन्हीं का ही एक मात्र सहारा होता है।
       पर्यटन के नाम पर विकास का ढिंढोरा पीटती सरकार और उसके नुमाइंदो द्वारा उत्तराखंड की जो गत् की जा रही है उससे पर्यटन में तेजी आ पाना तब तक संभव नहीं है जब तक कि पर्यटन क्षेत्रों को जोड़ने वाले मार्गों का हाल ठीक नही होगा। हमारे साथी दरबानदा कि इन पर ये टिप्पणी सटीक सी बैठती लगी कि,
‘‘मुल्ला, मिसर, मसालची, तीनों बड़े षैतान।
औरों को दिखाएं चांदना, खुद अंधेरा जा
न।’’

3 comments:

  1. प्रकृति कि बेमिशाल रचना

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  2. कौन कहता है... स्वर्ग धरती पर नहीं है |उत्तराखंड है भारत कि सरजमीं का जन्नत ...
    ईश्वर से प्रार्थना है कि मेरा पुनर्जन्म इसी पवन धरती पर हो ....

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  3. नयी जानकारियां मिली आपसे इस क्षेत्र के बारे में।

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