Monday, September 6, 2010

बाखूल बना लोगों के लिये कवच

21वीं शदी में भी वर्षों पूराना पहनावा पहन रहें है लोग
                                केशव भट्ट, बागेश्वर


बागेश्वर। जिस गांव में ना कोई फैक्ट्री हो और ना ही उस गांव के वाशिंदों को हो इसकी दरकार। बावजूद इसके भेड़-बकरियों के ऊन से ये लोग अपनी पुरातन कला से जो कपडा बनाते हैं वो इनके शरीर के लिए कवच का सा काम करता है। जो कि इन्हें सदियों से जाडे व बरसात से बचाता आ रहा है।
हॉं! यह बात है तहसील कपकोट के सुदूरवर्ती गांव की। जो आज भी इनकी धरोहर है। जहां पूरी दुनियां 21वीं शदी के फैशन में मस्त है वहीं बाखूल नाम से जाना जाने वाला और वास्कट की तरह दिखने वाला यह गणवेश मल्ला दानपुरवासियों के लिए सही मायने में शरीर का कवच है। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पल-पल मौसम बदलते रहता है। खेती-बाडी, पशुओं को चराने के लिए जंगल ले जाने समेत रोजमर्रा के कामों में इन क्षेत्रों में मौसम हर पल बाधक बनते रहता है। यहां के वाशिंदों के बुर्जगों ने इस समस्या के निदान हेतु भेड़-बकरियों के ऊन से कताई कर कपड़ा बनाना शुरू किया था। इस परंपरा को लोग आज भी बखूवी निभा रहे हैं। जिले के झूनी गांव के खीम सिंह बताते हैं कि हाथ से ऊन कताई के बाद फिर चान से बुनाई कर कपड़ा बनाया जाता है। तैयार उस ऊन की पट्टी के कपड़े को पख्खा कहते हैं। डेढ फीट ऊंचा चूल्हा बनाकर उसके उप्पर ढाई फुट लम्बा तथा दो फीट चौड़ा समतल पत्थर रखा जाता है। ऊन के पाख्खे को आधा घ्ंाटा पहले पानी में भीगने के लिए छोड़ दिया जाता है। तब तक चुल्हे में रखे पत्थर को आग में खुब गर्म किया जाता है। 
बाद में पख्खा को उस पत्थर पर लगभग 2 घंटे तक पैर से  मसला जाता है। इससे उस कपड़े के सभी रूवां जल कर सख्त हो जाते हैं और कपड़े के बीच में सूक्ष्म छिद्र बंद हो जाते हैं। इस विधि से पख्खा मोटा होकर एक तरह से वाटरपूफ्र बन जाता है। बाद में हम इसे बच्चे, जवान व बुर्जुग के नाप के अनुरूप सिर्फ बाजू निकालने वाली जगह को काट कर स्वयं ही कताई के बने धागे से सिलाई करते हैं। खीम सिंह बताते हैं कि बाजार की छाता व बरसाती की अपेक्षा हमारा बनाया हुवा बाखुल काफी सुविधाजनक और शुद्व होता है। घर हों या जंगल में बाखुल पहना हो तो काम करते हुवे बेफिक्री रहती है। 6 माह तक हिमालयी बुग्यालों में बकरियों के साथ रहने वाले अनवालों के लिए तो यह कवच ही साबित होता है। बर्फबारी, आंधी तुफान और तेज बरसात में कंदराओं में रहते समय उनका यह कवच ही उन्हें बचाता है। 
दानपुर क्षेत्र का यह आविष्कार सीमांत क्षेत्रों तक ही सीमित होकर रह गया। नई पीढी धीरे-धीरे इससे बिमुख होते जा रही है। उत्तराखंड के बागेश्वर, पिथौरागड़, चमोली और उत्तरकाशी के सीमांत क्षेत्रों में हस्तशिल्प की यह कला सरकारी उपेक्षा के चलते दम तोड़ने लगी है। हांलाकि सरकार ने हस्तशिलप के संरक्षण तथा विकास के लिए खादी बोर्ड, कुमाउं विकास मंड़ल, जन जाति निगम, उद्योग विभाग सहित कई संस्थाएं स्थापित की हैं। लेकिन इन संस्थाओं ने भी कभी ईमानदारी से इस कारोबार को विकसित करने के प्रयास नहीं किये। 



2 comments:

  1. यह तो बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी है... परंपरागत तरीकों से कपड़ा निर्माण और इस दौर में भी उसको प्रयोग करने वालों को सलाम... इन्टरनेट के माध्यम से दुनिया के सामने उत्तराखंड की सच्ची तस्वीर रखने का आपका यह प्रयास सराहनीय है..

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