Monday, September 20, 2010

जल के जलजले से मालपा बनते पहाड़ के गांव

गांवों की संवेदनशीलता के प्रति जागरुकता जरुरी

भारी बरसात के दौरान पर्वतीय क्षेत्रों मे हो रही जनहानि को रोकने के लिए व्यापक अध्ययन की जरुरत।
            
          जहांगीर राजू (रुद्रपुर से)

पर्वतीय क्षेत्रों में भारी वर्षा के दौरान गांवों में हो रहे हादसे हमें बार-बार मालपा की याद दिला रहे हैं। हाल ही में बागेश्वर जिले के सुमगढ़ गांव में 18 स्कूली बच्चों के जमींदोज होने की घटना को अभी हम भूले ही नहीं थे कि अल्मोड़ा में बाल्टा गांव में 13 व देवली में 10 व नैनीताल में 5 लोगों के जमींदोज हो जाने की घटना ने हमें एकबार फिर से पहाड़ की संवेेदनशीलता के बारे में आगाह कर दिया है।
उल्लेखनीय है कि पर्वतीय क्षेत्रों में सैकड़ों गांव भूस्खलन, बादल फटने व भूकंप की दृष्टि से बेदह संवेेदनशील हैं। बावजूद सरकार की किसी भी संस्था की ओर से पर्वतीय क्षेत्रों के संवेदनशील गांवों का भू-वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया। यदि समय के रहते राज्य के संवेदनशील क्षेत्रों का अध्ययन कर वहां रह रहे लोगों को पुर्नवासित करने की व्यवस्था नहीं की गयी तो पर्वतीय क्षेत्रों के अन्य संवेेदनशील गांवों को भी मालपा बनने से कोई नहीं रह पाएगा। इसके साथ ही राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों के बड़े शहरों में बढ़ रहा जनसंख्या का दबोव व संवेदनशील क्षेत्रों के अंधाधुंध दोहन के चलते नैनीताल व अल्मोड़ा जैसे शहर खतरे की जद में आते जा रहे हैं। अल्मोड़ा शहर के विभिन्न क्षेत्रों में 200 से अधिक मकानों का क्षतिग्रस्त होना इसका ताजा उदाहरण हैं। यहां स्लोप वाले क्षेत्रों में मनमाने ढंग से कटान कर बड़े-बड़े भवनों को बनाया जाना इसका प्रमुख कारण हैं। इसी तरह का दबाव नैनीलात शहर में भी लगातार बढ़ रहा है। जिसके चलते नैनीताल की मालरोड लगातार झील की तरफ धंसती जा रही है।  ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक जन जागरुकता नहीं होने व पर्वतीय क्षेत्रों के शहरों में बड़ रहे जनसंख्या के दबाव के कारण संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से गांवों व शहरों में हर वर्ष बरसात, भूस्खलन व भूकंप के चलते बड़े-बड़े हादसे हो रहे हैं। बावजूद इसके पर्वतीय क्षेत्रों के लाखों लोग संवेदनशील क्षेत्रों में रहने को मजबूर हैं।

अल्मोड़ा जिले के बाल्टा गांव में हुए भूस्खलन का दृश्य
ऐसे में शासन से उम्मीद की जाती है कि पर्वतीय क्षेत्रों गांवों व शहरों की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए वहां का व्यापक भू-वैज्ञानिक अध्ययन किया जाए। अध्ययन के दौरान जो क्षेत्र बादल फटने, भूस्खलन व  भूकंप की दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील हैं, उन क्षेत्रों के लोगों को सुरक्षित स्थानों में पुर्नवासित किए जाने की जरुरत है। इस स्थिति में यदि सरकार ने राज्य में जल के जलजले से हुई तबाही को फिर से भुला दिया तो पर्वतीय क्षेत्रों के गांवों में फिर से मालपा जैसे हादसे होते रहेंगे। ऐसे में शासन व प्रशासन चहकर भी कुछ नहीं कर पाएगा।




पहाड़ों का भू-वैज्ञानिक अध्ययन जरुरी-पंत

रुद्रपुर। प्रमुख भू-वैज्ञानिक प्रो.चारू सी पंत बताते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों कि कई गांव, घाटियां व शहर भूकंप, भूस्खलन व बदलों के फटने की घटना के लिए बेहद संवेदनशील हैं। ऐसे में राज्य के संवेदनशील क्षेत्रों का भू-वैज्ञानिक अध्ययन किया जाना जरुरी हैं। अध्ययन के बाद संवेदनशील क्षेत्रों में रह रहे लोगों को जागरुक करने व भूकंरोधी भवनों के निर्माण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

 उन्होंने कहा कि यदि लोगों को संवेदनशील क्षेत्रों में होने वाली घटनाओं के प्रति यदि पहले से ही जागरुक कर दिया जाए तो इससे आपदा के दौरान होने वाली जनहानि को काफी कम किया जा सकता है। प्रो.पंत ने कहा कि पर्वतीय क्षेत्रों के बड़े शहरों में प्राकृतिक संसाधनों के मनमाने दोहन को कम करने की भी जरुत है। ऐसे शहरों का यदि सुनियोजित विकास होगा तो इन शहरों में बड़े हादसों की संभावनाओं को कम किया जा सकेगा।

3 comments:

  1. jahangir bhai , its very relevent to get the scientific studies done to minimize the impact. But, there is an urgent need to determine the carrying capacity (in terms of urbanization as well as in terms of developmental activities)for each sensitive town / area. We know nature is a dynamic entity and keep changing to get more and more mature. Some mountains in the world are old enough but some like Himalaya are very young and prone for slide and slips. Nature will do its work, but with a better understanding of the processes lose can be minimized.

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  2. जहांगीर, सलाम तुम्हें भी और तुम्हारे प्रयासों को भी। कई चीजें जो छूट रही थी थोड़ी सी ही, परंतु मिल रही है, इसके लिए तुम बधाई के पात्र हो, बांकी बस ठीक ही ठैरा। उत्तराखंड की तराई पहाड़ों के संघर्ष पूर्ण जीवन और कठिनाइयों से भी ज्यादा कठिन हो जाती है, इन दिनों, जब चारों ओर गजगजाट और किचकिचाट होता है। अधिक बाद में....... सब्बाखैर। तुम्हारा भाई नविनचंद्र

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  3. आफ़त सबने देखी - सुनी
    हम भोग रहे हैं ...
    बी एस एन एल के टावर -'रावण' के जले पुतले के अवशेष से दिखते रहे -- अन्य कंपनियों के 'सिम' 'ब्लैक' में बिकते रहे.१०८ मोबाइल नहीं थी -कुछ चार्ज लेकर 'मोबाइल' चार्ज कर रही थी ,
    क्योंकि बिजली के तारों में करंट नहीं था - 'पानी' में था .........बिजली के पोल पानी में थे - जो विभाग की 'पोल' बिना ढोल खोल रहे थे .....अधिकारी रात की ख़ुमारी के साथ अपनी खोल में थे .......
    ''माटी'' का तेल 'सोना' हो गया - आदमी दूकानदार के हाथ का खिलौना हो गया ....आटा २५ ,चीनी ४० ,सब्ज़ी का तो रोना हो गया .....लाला,चक्कीवाला और कोटेदार जो मिले ,राशन का 'दाना' बेगाना हो गया ..... ख़बरें तो उड़ती हैं ....उड़कर चली आती हैं .....अखबार तो गाड़ी से ही आएगा -- दरार वाले घर में 'बूबू' हैं बेक़रार ...मटमैले पानी में नेताजी का कुरता - साबुन का प्रचार ...'सफेदी की चमकार' ..... इंतज़ार ........कौन लगाएगा बेड़ापार...... बदरवा बैरी हो गए हमार ...ना कोई इस पार हमारा ...ना कोई उस पार ......

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